डा. सुभाष राय की कविता
मुझमें तुम रचो
सूरज उगे, न उगे
चांद गगन में उतरे, न उतरे
तारे खेलें, न खेलें
मैं रहूंगा सदा-सर्वदा
चमकता निरभ्र
निष्कलुष आकाश में
सबको रास्ता देता हुआ
आवाज देता हुआ
समय देता हुआ
साहस देता हुआ
चाहे धरती ही क्यों न सो जाय
अंतरिक्ष क्यों न जंभाई लेने लगे
सागर क्यों न खामोश हो जाय
मेरी पलकें नहीं गिरेंगी कभी
जागता रहूंगा मैं पूरे समय में
समय के परे भी
जो प्यासे हों
पी सकते हैं मुझे
अथाह, अनंत जलराशि हूं मैं
घटूंगा नहीं, चुकूंगा नहीं
जिनकी सांसें
उखड़ रही हों टूट रही हों
जिनके प्राण थम रहे हों
वे भर लें मुझे अपनी नस-नस में
सींच लें मुझसे अपना डूबता हृदय
मैं महाप्राण हूं जीवन से भरपूर
हर जगह भरा हुआ
जो मर रहे हों
ठंडे पड़ रहे हों
डूब रहे हों
समय विषधर के मारक दंश से आहत
वे जला लें मुझे अपने भीतर
लपट की तरह
मैं लावा हूं गर्म दहकता हुआ
मुझे धारण करने वाले
मरते नहीं कभी
ठंडे नहीं होते कभी
जिनकी बाहें बहुत छोटी हैं
अपने अलावा किसी को
स्पर्श नहीं कर पातीं
जो अंधे हो चुके हैं लोभ में
जिनकी दृष्टि
जीवन का कोई बिम्ब धारण नहीं कर पाती
वे बेहोशी से बाहर निकलें
संपूर्ण देश-काल में समाया मैं
बाहें फैलाये खड़ा हूं
उन्हें उठा लेने के लिए अपनी गोद में
मैं मिट्टी हूं, पृथ्वी हूं मैं
हर रंग, हर गंध
हर स्वाद है मुझमें
हर क्षण जीवन उगता-मिटता है मुझमें
जो चाहो रच लो
जीवन, करुणा, कर्म या कल्याण
मैंने तुम्हें रचा
आओ, अब तुम
मुझमें कुछ नया रचो
अच्छी रचना , बधाई !
जवाब देंहटाएंमिटकर आओ
जवाब देंहटाएंनहीं तुम प्रवेश नहीं
कर सकते यहाँ
दरवाजे बंद हैं तुम्हारे लिए
यह खाला का घर नहीं
कि जब चाहा चले आये
पहले साबित करो खुद को
जाओ चढ़ जाओ
सामने खड़ी चोटी पर
कहीं रुकना नहीं
किसी से रास्ता मत पूछना
पानी पीने के लिए
जलाशय पर ठहरना नहीं
सावधान रहना
आगे बढ़ते हुए
फलों से लदे पेड़ देख
चखने की आतुरता में
उलझना नहीं
भूख से आकुल न हो जाना
जब शिखर बिल्कुल पास हो
तब भी फिसल सकते हो
पांव जमाकर रखना
चोटी पर पहुँच जाओ तो
नीचे हजार फुट गहरी
खाई में छलांग लगा देना
और आ जाना
दरवाजा खुला मिलेगा
या फिर अपनी आँखें
चढ़ा दो मेरे चरणों में
तुम्हारे अंतरचक्षु
खोल दूंगा मैं
अपनी जिह्वा कतर दो
अजस्र स्वाद के
स्रोत से जोड़ दूंगा तुझे
कर्णद्वय अलग कर दो
अपने शरीर से
तुम्हारे भीतर बांसुरी
बज उठेगी तत्क्षण
खींच लो अपनी खाल
भर दूंगा तुम्हें
आनंद के स्पंदनस्पर्श से
परन्तु अंदर नहीं
आ सकोगे इतने भर से
जाओ, वेदी पर रखी
तलवार उठा लो
अपना सर काटकर
ले आओ अपनी हथेली
पर सम्हाले
दरवाजा खुला मिलेगा
यह प्रेम का घर है
यहाँ शीश उतारे बिना
कोई नहीं पाता प्रवेश
यहाँ इतनी जगह नहीं
कि दो समा जाएँ
आना ही है तो मिटकर आओ
दरवाजा खुला मिलेगा।
- सुभाष राय