सारांश यह हैं कि उनके आधार पर कुछ भी किसी समाज के विषय में लिख डालना प्रबल निर्लज्जों का ही काम हैं, न कि भद्र पुरुषों का। इसलिए अन्त में मेरी प्रार्थना उन सज्जनों से, जिनको फिर भी उन्हीं आधारों पर लिखने की असदाग्रहपिशाची ग्रसे हुए हैं, यही हैं कि वे लोग किसी भी समाज का व्यर्थ दिल दुखाने के लिए कुछ वाक्य बाण चलाकर अपनी सज्जनता का परिचय अवश्य दे। परन्तु लिखने से पहले उन सभी ग्रन्थों में अपने समाज का भी किया गया सत्कार पूर्ण रीति से देख ले। नहीं तो मुँह ही खानी पड़ जायेगी और लेने के देने भी पड़ जायेगे। किं बहुना, 'रोजा को गये नमाज गले पड़ी' वाली कहानी चरितार्थ होने लग जायेगी।
एक बात और भी विचारने की हैं कि वायुपुराण के अध्याय 59 में लिखा हुआ हैं कि 'इज्यावेदात्मक: श्रौत: स्मात्तरो वर्णाश्रमात्मक:। 39।' अर्थात्, 'यज्ञ तथा वेदादि का पढ़ना वगैरह श्रौत (श्रुतिसिद्धि) धर्म हैं और वर्णाश्रम विभागदि स्र्मात्ता (स्मृति सिद्ध) धर्म हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा हैं कि 'पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्रांग मिश्रिता:। वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश। 3।' भाव यह हैं कि 'पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, चारों वेद और षडंग ये ही विद्या और वर्णाश्रमादि धर्म के स्थान हैं।' मनुजी ने भी लिखा हैं कि 'वेद: स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:। एतच्चतुर्विधांप्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।' अ.2 श्लो. 12। जिसका अर्थ यह हैं कि 'वेद, मन्वादिस्मृति तथा पुराणादि, सत्पुरुषों का आचरण और जहाँ पर दो कामों में से किसी एक को करना हो वहाँ पर अपनी इच्छा ये ही साक्षात् जाति, वर्णादि धर्मों के बताने वाले हैं।' सबका तात्पर्य यह हैं कि वर्ण, आश्रम आदि विभाग, जाति-पाँति का विचार तथा प्रत्येक धर्म ये सब श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणादि द्वारा ही जाने जाते हैं; क्योंकि ये सब विभाग आधुनिक लोगों के बनाये हुए नहीं हैं, किन्तु प्राचीन महर्षियों के ही किये हुए हैं। इनके नियमादि और पहचान पुराण तथा स्मृतियों में उन्होंने लिख दिये हैं, न कि अंग्रेजी पोथों में इनका वर्णन किया गया हैं। अत: जिसको जाति विभाग तथा उसके धर्म आदि जानने की इच्छा होगी, वह उन्हीं आर्ष ग्रन्थों का परिशीलन करे तभी इन सबों के यथार्थ स्वरूप को जान सकेगा, न कि अंग्रेजी ग्रन्थों और अंग्रेजी महावाक्यों के भक्त होने से। अतएव भगवान् श्रीकृष्णा का गीता में यह अमृतोपदेश हैं कि 'य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥ 23॥ तस्माच्छास्त्रां प्रमाणं ते कार्यकार्य व्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥ 24॥ अध्याय 16॥ जिसका भाव यह हैं कि जो कोई श्रुति, स्मृति, पुराणादि प्रतिपादित धार्मिक व्यवस्था को छोड़कर मनमाने डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाता हैं, उसके न तो किसी कार्य की सिद्धि ही होती हैं, न उसे इस संसार में सुख ही मिलता हैं और न अन्त में मोक्ष ही। इसलिए अच्छे और बुरे सभी कार्यों में इन शास्त्रों को ही प्रमाण मानकर उन्हीं के अनुसार कार्य करना उचित हैं। मनुजी ने भी कहा हैं कि योवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयात् द्विज:। स साधुभिर्बहिष्क नास्तिको वेदनिन्दक: ॥ अ. 2। 11॥
अर्थात् 'जो आधुनिक काल्पनिक कुतर्कों के बल से धर्म के मूलभूत उन श्रुति-स्मृतियों का निरादर करके मनमानी करता हैं, सत्पुरुषों को उचित हैं कि उसे समाज से बाहर कर दे, क्योंकि वह वेदादि का निन्दक होने से नास्तिक हैं। अब आप ही लोग बतायें कि वैदेशिक ग्रन्थों के आधार पर जाति और धर्म की व्यवस्था करने वाले मानने योग्य हैं या नहीं और उनका यह कर्त्तव्य कहाँ तक समुचित हैं। इसलिए हम इस पुस्तक में, जैसा कि प्रथम भी सूचित कर चुके हैं, केवल श्रुति, स्मृति, सदाचार और दार्शनिक विचारों से ही प्राय: सर्वत्रा काम लेंगे। केव ल इतिहासांश में कुछ-कुछ अन्य ग्रन्थों का अवलम्बन करेंगे, परन्तु प्राधान्य सर्वदा श्रुति-स्मृत्यादि का ही रहेगा। यों यदि प्रासंगिक वैदेशिक ग्रन्थों के भी वाक्य लिख दिये जाये सो दूसरी बात हैं। और हमारी अल्प बुद्धि जहाँ तक जाती हैं, इस विषय में सभी लोगों को ऐसा ही करना उचित हैं। अस्तु, अब हम अपने प्रिय पाठकों को प्रकृत विषय तथा ग्रन्थ का कुछ परिचय कराकर अपने इस वक्तव्य को यहीं समाप्त करना चाहते हैं। यद्यपि हमारे इस इतने लेख से बुद्धिमानों को इस ग्रन्थ के लिखने का कारण विदित हो ही गया होगा, तथापि थोड़ा-सा कह देना कोई अनुचित बात न होगी। यह बात तो सबको विदित ही हैं कि अयाचक ब्राह्मण समाज प्राचीन काल से भूम्यधिकारी होने और विशेषकर राजकीय झंझटों से अधिक सम्बन्ध रखने के
कारण संस्कृत से प्राय: रहित-सा हो रहा हैं। क्योंकि जमींदारी तथा राजपाट और संस्कृतविद्या का विशेषकर इस समय में नितान्त विरोध हैं, जिसका अनुभव प्रत्येक मनुष्य करताहैं।
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