सोमवार, 23 अगस्त 2010
28 सुरजपुर ........
महान क्रांतिकारी बाबू मगंरु राय, बाबू क्र्ष्णदेव राय के नाम पर २८ अगस्त को सुरजपुर मऊ में रोड के शिलान्यास कार्यक्रम आयोजित किया गया है..जिसमे मऊ के डी एम सहित जनपद के अनेक गणमान्य लोगो सम्मिलित होंगे...........आप सभी सादर आमन्त्रित है.............
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
डॉ. विवेकी राय : व्यक्ति और रचनाकार

डॉ. विवेकी राय हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं । वे ग्रामीण भारत के प्रतिनिधि रचनाकार हैं । श्री राय उनका जन्म 19 नवम्बर सन् 1924 को भरौली (बलिया) नामक ग्राम में हुआ है। इनकी आरमिभिक शिक्षा इनके पैतृक गाँव सोनवानी (गाजीपुर) में हुई । स्नातकोत्तर परीक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । सन् 1970 ई. में स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कथा साहित्य और ग्राम जीवन विषय पर काशी विद्यापीठ, वाराणसी से आपको पी. एच. डी. की उपाधि मिली ।
डॉ. विवेकी राय जी के अध्यापकीय जीवन की जो शुरूआत ‘सोनवानी’ के लोअर प्राइमरी स्कूल शुरू हुई वह हाई स्कूल नरहीं (बलिया), श्री सर्वोदय इण्टर कॉलेज खरडीहां (गाज़ीपुर) होते हुए स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाज़ीपुर में सन् 1988 ई. तक चली । यह अपने आप में शैक्षिक मूल्यों की प्राप्ति और प्रदेय का अनूठा उदाहरण है।
जब 7वीं कक्षा में अध्यन कर रहे थे उसी समय से डॉ.विवेकी राय जी ने लिखना शुरू किया । सन् 1945 ई. में आपकी प्रथम कहानी ‘पाकिस्तानी’ दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित हुई । इसके बाद इनकी लेखनी हर विधा पर चलने लगी जो कभी थमनें का नाम ही नहीं ले सकी। इनका रचना कार्य कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी, समीक्षा, सम्पादन एवं पत्रकारिता आदि विविध विधाओं से जुड़ा रहा। अब तक इन सभी विधाओं से सम्बन्धित लगभग 60 कृतियाँ आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं और लगभग 10 प्रकाशनाधीन हैं ।
प्रकाशित कृतियाँ निम्न हैं-
काव्य संग्रह : अर्गला,राजनीगंधा, गायत्री, दीक्षा, लौटकर देखना आदि ।
कहानी संग्रह : जीवन परिधि, नई कोयल, गूंगा जहाज बेटे की बिक्री, कालातीत, चित्रकूट के घाट पर, विवेकी राय की श्रेष्ठ कहानियाँ , श्रेष्ठ आंचलिक कहानियाँ, अतिथि, विवेकी राय की तेरह कहानियाँ आदि ।
उपन्यास : बबूल,पूरुष पुराण, लोक ऋण, बनगंगी मुक्त है, श्वेत पत्र, सोनामाटी, समर शेष है, मंगल भवन, नमामि ग्रामम्, अमंगल हारी, देहरी के पार आदि ।
फिर बैतलवा डाल पर, जुलूस रुका है, मन बोध मास्टर की डायरी, नया गाँवनाम, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ ,जगत तपोवन सो कियो, आम रास्ता नहीं है, जावन अज्ञात की गणित है, चली फगुनाहट, बौरे आम आदि अन्य रचनाओं का प्रणयन भी डॉ. विवेकी राय ने किया है। इसके अलावा डॉ. विवेकी राय ने 5 भोजपुरी ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है। सर्वप्रथम इन्होंने अपना लेखन कार्य कविता से शुरू किया । इसीलिए उन्हें आज भी ‘कविजी’ उपनाम से जाना जाता है।
विवेकी राय स्वभावतः गम्भीर एवं खुश-मिज़ाज़ रचनाकार हैं । बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सीधे, सच्चे, उदार एवं कर्मठ व्यक्ति हैं । ललाट पर एक बड़ा सा तिल, सादगी, सौमनस्य, गंगा की तरह पवित्रता, ठहाका मारकर हँसना, निर्मल आचार-विचार आपकी विशेषताएँ हैं । सदा खादी के घवल वस्त्रों में दिखने वाले, अतिथियों का ठठाकर आतिथ्य सत्कार करने वाले साहित्य सृजन हेतु नवयुवकों को प्रेरित करने वाले आप भारतीय संस्कृति की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं ।
डॉ. विवेकी राय का जीवन सादगी पूर्ण है । गम्भीरता उनका आभूषण है । दूसरों के प्रति अपार स्नेह एवं सम्मान का भाव सदा वे रखते हैं । सबसे खुलकर गम्भीर विषय की निष्पत्ति एवं चर्चा करना उनका स्वभाव है। अपने इन्हीं गुणों के कारण पहुतों के लिए वे परम पूज्य एवं आदरणीय बने हुए हैं । कुल मिलाकर वे संत प्रकृति के सज्जन हैं । विशुद्ध भोजपुरी अंचल के महान् साहित्यकार हैं।
सत्पथ पर दृढ़ निश्चय के साथ बढ़ते रहने का सतत् प्रेरणा देने वाले डॉ. विवेकी राय मूलतः गँवई सरोकार के रचनाकार हैं । बदलते समय के साथ गाँवों में होने वाले परिवर्तनों एवं आदरणीय बने हुए हैं । कुल मिलाकर वे संत प्रकृति के सज्जन हैं । विशुद्ध भोजपुरी अंचल के महान् साहित्यकार हैं । आँचलिक चेतना विवेकी राय के कथा साहित्य की एव विशेषता है। इन्होंने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में किसानों, मज़दूरों, स्त्रियों तथा उपेक्षितों की पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान की है। अपनी रचनाधार्मिता के कारण इन्हें हम प्रेमचन्द और फणीश्वर नाथ रेणु के बीच का स्थान दे सकते हैं । स्वातंत्र्योत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन में परिलक्षित परिवर्तनों को इन्होंने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया है। इनके कथा साहित्य में गाँव की खूबियाँ एवं अन्तर्विरोध हमें स्वष्ट रूप से दिखाई देते हैं ।
उनकी सृजन यात्रा अर्धशती से आगे निकली है । जीवन के साकारात्मक पहलुओं की ओर, लोक मंगल की ओर इन्होंने अब तक विशेष ध्यान दिया है।
डॉ. विवेकी राय को अनेकों पुरस्कारों एवं मानद उपाधियों से सम्मानित किया गया है। हिन्दी संस्थान (उ.प्र.) द्वारा ‘सोनामाटी’ उपन्यास पर दिया गया प्रेमचन्द पुरस्कार , हिन्दी संस्थान लखनऊ (उ.प्र. ) द्वारा दिया गया साहित्य भूषण पुस्स्कार, बिहार सरकार द्वारा प्रदान किया गया आचार्य शइवपूजन सहाय सम्मान; ‘आचार्य शिवपूजन सहाय’ पुरस्कार मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रदत्त ‘शरद चन्द जोशी ; सम्मान केन्द्रीय हिन्दी संस्थान एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में दिया गया ‘पंडित राहुल सांकृत्यायन’ सम्मान तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की ओर से प्रदत्त ‘साहित्य वाचस्पति’ उपाधि जैसे अनेकों सम्मान इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। डॉ. विवेकी राय के उपन्यासों, कहानियों, ललित निबन्धों; उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व, उनकी सम्पूर्ण साहित्य साधना पर पंजाब वि.वि, गोरखपुर विश्वविद्यालय, रुहेल खण्ड विश्वाद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, मगध विश्वविद्यालय,दिल्ली विश्वविद्यालय, मुम्बई विश्वविद्यालय, उस्मानिया विश्वविद्यालय, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सबा मद्रास, श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, डॉ. भीमराव अमबेडकर विश्वविद्यालय, पंडित दीन दयाल विश्वविद्यालय, शिवाजी विश्वविद्यालय, माहाराष्ट्र विश्वविद्यालय, राजस्थान विश्वविद्यालय, वीर बहादुर सिंह पर्वांचल विश्वविद्यालय,बेंगलोर विश्वविद्यालय, जेयोति बाई विश्वविद्यालय, जम्मू विश्वविद्यालय, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय आदि विश्वविद्यालयों में एम, फिल,/ पी. एच. डी. के 70 शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं और कई विश्वविद्यालयों में छात्रों द्वारा इन पर शोध कार्य किया जा रहा है।
स्वर्गीय कुबेरनाथ राय
कहां है वीथिका जमदग्नि की
शत अश्वमेधों की यही धरती
जहां से चक्रमण करती हुई
गंगा पुनः उत्तर को चलती है
मगर थोड़ी-सी सांस लेती है
जहां 'धनुर्वेद का मर्मज्ञ'
फरसा हाथ लेकर
काल-गति से दौड़ता है।
वहीं पर द्रोण प्रत्यंचा संभाले
वाण से पाताल-जल भी फोड़ता है।
वहीं पर ध्यानावस्थित इक 'बटुक'
'बैकुंठ' का करता सृजन है,
जो अपना प्राण प्रण संकल्प है
तन मन है, पूरा धन है,
हमारी आस्था श्रद्धा जिसे करती नमन है।
उसी की अर्चना में
धाम की महिमा सुनाता हूं
उसी श्री नाम की गरिमा गिनाता हूं,
चलो प्रासाद में खोजें कोई कुबेर
जहां पर एक शिल्पी
मौन तप की साधना में रत
सृजन की मोरपंखी तूलिका से
चिरंतन संस्कृति के कोटरों में
इन्द्रधनुषी कल्पना के रंग
इतना भर रहा है
हमारी प्रकृति की संवेदना
होकर तरंगित ढूंढती है ललित लहरों को,
हमारा विरल-विह्वल मन
हिरन-सा ढूंढता है गंध कस्तूरी,
यहीं से बालुका पर
दौड़ता-सा वह हांफता
'मतसा' पहुंचता है
वहीं पर आम्रकुंजों में
तृषा की 'नीलकंठी'
भोजपत्रों पर प्रणय के गीत लिखती है
'अरे पूरब के परदेसी
तू आ जा...कामरुपों की नजर से बच
तू मेरी भंगिमा का भाव पढ़
बोल वह भाषा कि
भारत के हृदय के सिन्धु में
निरंतर चल रहा मंथन',
हमारी आंख खुलती या नहीं खुलती-
हमें लगता हमारा कवि अकेले
पी रहा होता है नीला विष
सुधा का कुम्भ हमको कर समर्पित
हमें बस कुम्भ का अमृत पता है।
जो सत्साहित्य के संपत्ति की गठरी
किसी दधीचि की ठठरी
जिसे ले हम 'किरातों की नदी' में
'चन्द्रमधु' स्नान करके
अमरफल का पान करके
एक आदिम स्वर्ग में है वास करते
सहस्त्रार्जुन सरीखा पीढ़ियों का नाश करते
एक इच्छाधेनु खूंटे से बंधी है-
हमारी शून्यता-
साहित्य के लालित्य से कैसे भरेगी?
मनीषी के हृदय में
त्रासदी की लौ भभकती है
पता है? क्रौंच-वध का तीर
किसके जिस्म को
छलनी किया है ? वही आराध्य मेरा।
विश्वामित्र ने
विश्वासपूर्वक कुछ गढ़ा था
जहां कुछ पीढ़ियों ने कुछ
औ' किसी ने कुछ का कुछ पढ़ा था।
हमारी गहन से होती गहनतम रिक्तियों में
हमारी सघन से होती सघनतम वृत्तियों में
विरल-सा प्रेरणा का
आज किंचित पारदर्शी अक्स उभरता है,
हमारी जिंदगी में
इन्द्रधनुषी रंग निश्चित जो भी भरता है
वही मानव, महामानव
नया भारत हृदय में पालता है।
उसी के नाम अक्षत-पुष्प लेकर हम खड़े हैं
चलाकर चल दिया उसने
उसी संकल्प पर अनवरत चलते रहेंगे।
एक छोटी वर्तिका में
सूर्य की आभा लिए जलते रहेंगे।
वही कुबेर का प्रण था तो उसके हम हैं अटल प्रण,
चलें हम उस मनीषी का करें
हर बार अभिनमन।
कुबेरनाथ राय की गाँधी-विषयक दृष्टि......... डॉ. नीरा नाहटा
कुबेरनाथ राय कवि-हृदय से सज्जित ऐसे निबंधकार हैं, जो अपनी मिट्टी से रस ग्रहण करके निरन्तर ऊर्ध्वगति की ओर बढ़ते रहे हैं। उनके लिए लेखन एक साहित्यिक और राष्ट्रीय दायित्व है। इस दायित्व का निर्वाह करते हुए उन्होंने ललित निबंध लिखे, जिसे उन्होंने 'आर्तनाद' कहा। हिंदुस्तान का आर्तनाद।
अश्रुपात कर रहा है मनुष्य जाति का सूर्य
विपन्न है मनुष्य जाति का सूर्य।
अपने समय की कटु सच्चाइयों और तरह-तरह के अवरोधों से गहराते अँधेरे में सर्वाधिक चिंतित करनेवाला तत्त्व है - मनुष्य की आंतरिक विपन्नता। उन मूल्यों से दूर होते जाने की स्थिति, जिनकी वजह से मनुष्य मनुष्य है।
एक लेखक की हैसियत से इस अवस्था को बदलने तथा आस्था की नींव मज़बूत करने के लिए, संस्कृति के विशाल प्रांगण में साहित्य-जगत्, इतिहास-बोध और लोक-जीवन की गहराई में अवगाहन करते हुए उन दीर्घजीवी मूल्यवान तत्त्वों और शाश्वत सच्चाइयों को उन्होंने सम्मुख रखा, जो हमारी जीवंतता और गौरव-बोध के परिचायक हैं। श्री राय का मानना है कि पाठक की मानसिक ऋद्धि और क्षितिज का विस्तार करना लेखक का कर्तव्य है। कुबेरनाथ राय ने अपनी पीढ़ी को अपने दायरे से परिचित करवाने, उसमें जीवन-दृष्टि का सही बोध जगाने का कार्य अपने निबंधों द्वारा किया है। आज की परिस्थितियों में उन प्राचीन मूल्यों को प्रासंगिक मानकर उन्होंने पुनर्व्याख्यायित किया और उसकी उपादेयता सिद्ध की। इस प्रकार विकास के लिए परम्परा की ज़मीन पर खड़े होने का उन्होंने समुचित साधन प्रस्तुत किया है।
इस प्रक्रिया में उनकी दृष्टि भारतीय मनीषा की वैचारिक उच्चता और उज्ज्वल कर्तृत्व के उन महान् तपी आत्माओं पर पड़ती है, जिन्हेंने भारत की अस्मिता को मिटने से बचाया और विश्व के सामने इसकी साख बनायी। विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ और आनंद कुमार स्वामी ने क्रमश: भारत की दार्शनिक, साहित्यिक और कलात्मक गरिमा को प्रतिष्ठित किया। परन्तु महात्मा गाँधी ने अपने व्यापक और सहज जीवन द्वारा भारत की आत्मा को विश्व के समक्ष उद्घाटित किया।
कुबेरनाथ राय गाँधीजी को युग का सर्वश्रेष्ठ मनुष्य मानते हैं। आज जब हम अपनी आत्मा से ही बेख़बर होते जा रहे हैं, घोर हताशा के इन क्षणों में उन्हें गाँधी-चिंतन के अतिरिक्त और कोई राह नहीं सूझती।
गाँधीजी को समझने के लिए राय के अनुसार कुंजी के रूप में तीन शब्द हैं - सत्य, अहिंसा और अभय। उनकी प्रत्येक विचारधारा में तीनों मौजूद हैं, परन्तु विषयानुसार ज़ोर कभी एक पर है तो कभी दूसरे पर। उनकी रस-दृष्टि या साहित्य-दर्शन, शिल्प-दृष्टि को समझने के लिए 'सत्य' पर विशेष बल देना होगा।
आज चारों ओर कृत्रिमता, जटिलता और बनावटीपन के चेहरे इस तरह हर क्षेत्र में उभरे हुए हैं कि इस जड़ता और यांत्रिकता से अलग कुछ दिखायी नहीं देता। परन्तु गाँधीजी बहुत बड़े आशावादी हैं। उनका मनुष्य की अन्तर्निहित अच्छाइयों में दृढ़ विश्वास है। 'आज की यंत्रणा का मूल कारण 'बुराई' उतना नहीं है, जितना अच्छाई का अक्षम और अपर्याप्त हो जाना।' कैथोलिक चर्च के पोप पायस की इस चिंता के लिए गाँधीजी का उत्तर है 'लोकशक्ति' को जगाना। लोकशक्ति की कल्पना जनशक्ति से अलग है। 'लोक' का एक व्यक्तित्व होता है और व्यक्तित्व वाला सदैव हृदय या अन्त:करण वाला ही होता है। अत: अच्छाई को लोकशक्ति में जगाकर व्यक्ति-व्यक्ति के माध्यम से सर्वोदय के उद्दिष्ट तक पहुँचना है। गाँधीजी का अटूट विश्वास है कि राज्य-व्यवस्था या अर्थ-व्यवस्था बदलने से कुछ नहीं होता, जब तक कि हमारी चिंतन-शैली न बदले। औसत आदमी की बात आज तथाकथित वैज्ञानिक सोच का गणित है, जो प्रगति का मापक बना हुआ है। परन्तु गाँधीजी के लिए प्रगति औसत के रूप में नहीं, सर्वोदय के रूप में स्वीकार्य है, जहाँ आख़िरी आदमी तक समाज की हिस्सेदारी पहुँचे। अपने हर कार्य के लिए इसे कसौटी मानने तथा मानसिकता के परिवर्तन पर ही वे ज़ोर देते हैं।
गाँधीजी के जीवन, उनकी रुचि, उनके आदर्श पर चिंतन-मनन करके कुबेरनाथ राय ने 'शान्तं, सरलं, सुन्दरम्' के सूत्र द्वारा उनकी दृष्टि का निचोड़ प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि रस-बोध और सौंदर्य-रुचि ही हमारे जीवन के शुभ और अशुभ का स्रोत है। यदि ये दोनों स्वस्थ, पवित्र और उच्चगामी रहें तो व्यक्ति का जीवन एवं प्रकारान्तर से समूह का जीवन स्वस्थ, पवित्र और उच्चगामी रहेगा। इसीलिए आज की बढ़ती कृत्रिमता और उपभोक्ता संस्कृति के विलासपूर्ण विस्तार के संदर्भ में 'शान्तं, सरलं, सुंदरम्' का गाँधीवादी सूत्र उन्हें सर्वोत्तम और सर्वाधिक उपयोगी लगता है।
गाँधीजी की दृष्टि संत-दृष्टि थी। जो सरल है, ऋजु है, वही सुंदर है। उनके यहाँ सरल दो अर्थों में प्रयुक्त होता है : सरल यानी सादा और अकृत्रिम और दूसरे अर्थ में सरल यानी निष्कपट, पारदर्शी। इसी सरल का दूसरा नाम है 'सुशील'। जो कुटिल है, जटिल है, वह निश्चय ही 'दु:शील' है। राय का मानना है कि यह 'शान्तं, सरलं सुंदरम्', हमें अपनी वैदिक प्रार्थना के निकट ले जाता है। हमारी सनातन प्रार्थना यही रही है कि 'हे भगवान, बाह्य सौंदर्य, बाहरी रोब-दाब, बाहरी चमक-दमक हमें पराभूत न करे, हम भीतर निहित सच्चाई को पहचानें।' खादी भी इसी शान्त-सरल-सुंदर सौंदर्यबोध का प्रतीक है।
गाँधीजी आध्यात्मिक नहीं, नैतिक मूल्यों के दार्शनिक हैं। नैतिक मूल्य ऊपर अध्यात्म से जुड़े हैं तो नीचे रोज़मर्रा के लोक-जीवन से। 'हर हाथ को काम' - हमारी विशाल जनसंख्या वाले देश में गाँधीजी ने खादी के द्वारा संभव करने का प्रयास किया। मशीन या आधुनिक सभ्यता के वे विरोधी नहीं थे, पर मशीन का लक्ष्य है 'अधिक उत्पादन' और हमारे देश के लिए चाहिए 'अधिक हाथों द्वारा उत्पादन'। इसलिए कुटीर शिल्प को मशीन और उद्योग के स्थान पर वे तरजीह दे रहे थे। मशीनी सभ्यता तो धीरे-धीरे मनुष्य के मनुष्यत्व को ही ग्रास बनाती जा रही है।
मशीन द्वारा मनुष्य के अवमूल्यन को प्रश्रय न देने और हस्तशिल्प के माध्यम से सही तऱीके से रचनात्मक कार्य में जुड़ने का लक्ष्य था खादी के पीछे। मशीन रहे, मनुष्य के हाथ में शंख-चक्र बनकर रहे, उसका दिल और स्नायुमण्डल बन कर नहीं।
गाँधीजी की भोजन-दृष्टि भी उनके शील-दर्शन का अंग थी। 'निरामिष भोजन का नैतिक दर्शन' और 'स्वास्थ्य की कुंजी' गाँधीजी की इन दोनों पुस्तकों से उनकी भोजन-संबंधी चिंता स्पष्ट होती है। उनके लिए भोजन शरीर के आरोग्य और बल के लिए आवश्यक है। भोजन को वे 'औषधि' की दृष्टि से देखने के समर्थक थे। 'औषधवदशनमाचरेत' (भोजन वैसे ही करो, जैसे औषधि ग्रहण करते हैं अर्थात् नपी-तुली संतुलित मात्रा, भूख के अनुसार करो और स्वाद-तोष के लिए नहीं।)
श्री राय नलबारी के एक होम्योपैथ कॉमरेड नवीन वर्मन की स्वीकारोक्ति उद्धृत करते हुए कहते हैं कि उनकी धारणा में विश्व-शांति की स्थापना संभव है गाँधीवादी भोजन द्वारा। सब लोग गाँधीजी की तरह सीधा-सरल भोजन करने लगेंगे, तो किसी का स्वभाव उग्र नहीं होगा, सब लोग कोमल-सरल प्रकृति के हो जायेंगे। कोई किसी को देखकर अकड़ेगा नहीं, कोई किसी की ओर सींग नहीं तानेगा। क्योंकि सादा सात्त्विक भोजन मनुष्य को उत्तेजित नहीं करता, उसे धीर और शांत रखता है।
गाँधीजी को नीरस, निषेधवादी या सौन्दर्य-विरोधी मान लेने की युवा-पीढ़ी की मानसिकता को श्री राय पूर्वाग्रह और भ्रम मानते हैं। उनका तो कहना है कि उनके जैसा रसमय पुरुष इस शताब्दी के राजनीतिक या सामाजिक जीवन में शायद ही कोई हुआ हो। प्रेम उत्तेजना से ऊपर शान्त और अविकल स्थिति है। गाँधीजी रामायण को प्रेम-काव्य भी मानते थे। गाँधीजी की रसदृष्टि 'प्रसन्न गंभीर रसदृष्टि' थी। 'प्रसन्न' शब्द का अर्थ है पारदर्शी। जब हम प्रसन्न होते हैं, हमारे चेहरे पर हमारा हृदय उतर आता है। इसीलिए 'प्रसन्न' का अर्थ आनन्दित भी है। गाँधीजी आजीवन हर काम में प्रसन्न व गंभीर जल की तरह रहे। उन्होंने अपना भला-बुरा कुछ नहीं छिपाया। गाँधीजी की रसदृष्टि में रूप तभी सुंदर है, जब कर्म का सहयोगी हो और सत्य का बोधक हो। गाँधीजी ने स्वयं कहा है, ''मैं सौंदर्य को सत्य के माध्यम से देखता हूँ।''
कला के क्षेत्र में भी गाँधी-दृष्टि में तीन कसौटियाँ हैं - स्वदेशी हो, लोकायत जीवन से जुड़ी हो और उपयोगी हो। प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल वसु उनके आश्रम के गोबर लिपे कमरे में घड़े के पत्तेनुमा आकार के ढक्कन को देखकर गाँधीजी के उद्गार व्यक्त करते हैं - 'देखो सुंदर है न! इस पर प्रकृति की छाप है, साथ ही इसे मुझे गाँव के लोहार ने गढ़ कर दिया है।'
भाषा और साहित्य के संदर्भ में भी गाँधीजी की दृष्टि में केन्द्राrय तत्त्व 'शील-सौंदर्य' है। हिंदुस्तानी का प्रचार-प्रसार करते हुए 'स्वच्छता और सरलता के साथ उच्चगामिता' उनकी साहित्य-संबंधी धारणा को व्यावहारिक रूप दे देती है। सरल भाषा से तात्पर्य प्राणहीन, गँवारू या भदेस शब्दावली नहीं था।
‘A call to the Nation’ शीर्षक से 'यंग इंडिया' में लिखे अपने लेख के लिए भदन्त आनंद कौसल्यायन से गाँधीजी ने 'हिंदुस्तानी अनुवाद' पूछा। उन्होंने संकोच से कहा 'आह्वान'। गाँधीजी संतुष्ट हो गये। पर भदन्तजी ने कहा, 'बापू! यह तो हिंदुस्तानी नहीं हुई।' गाँधीजी ने आश्चर्य से कहा, 'कैसे! 'आह्वान' काफ़ी ज़ोरदार शब्द है और ख़ूब चलता है।'
गाँधीजी के लिए दर्शन सही वही है, जो जीवन के 'शील' से; 'शीलाचार' के समस्त अंग-प्रत्यंग से जुड़ा हो। गाँधीजी के चिंतन के सारे अंग, चाहे वह सत्याग्रह या ग्रामोद्धार हो, सत्य या अहिंसा हो या मूँगफली का तेल और बकरी का दूध हो, सभी एक ही 'शील' के उन्मेष, आभास और विवर्त्तन हैं। इन सबकी चरम परिणति है 'अभय'। जो इस शील का पालन करता है, वह अभय को प्राप्त हो जाता है।
इतिहास के पन्नों में गाँधीजी के समकक्ष श्री राय को गुरु गोविन्दसिंह दिखायी पड़ते हैं। गाँधीजी की 'राम धुन' की पहली दो पंक्तियाँ स्वामी रामानंद की हैं और अंतिम पंक्तियाँ गुरु गोविन्दसिंहजी की। दोनों को मिलाकर 'राम धुन' पूरी होती है। श्री राय बड़े गर्व से वे पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं -
'रघुपति राघव राजा राम
पतित पावन सीता राम।' (स्वामी रामानंद)
'ईश्वर अल्ला तेरे नाम
सबको सन्मति दे भगवान।' (गुरु गोविंदसिंह)
लोकनायक और गुरु की भूमिका में आने की तैयारी के रूप में भी श्री राय गाँधीजी के अ़फ्रीका-प्रवास को देखते हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति सिर्फ़ नेता को लोकनायक नहीं मान सकती। वही लोकनायक हो सकता है, जो 'गुरु' होने की क्षमता से युक्त है।
श्री राय गाँधीजी को 'एक सही हिंदू' कहते हैं। नव्यपाषाण युग से आयी भारतीय परंपरा से शुरू होकर राममोहन, दयानंद, गाँधी तक आनेवाली हिंदुत्व की परंपरा है। इसी के मानसिक उत्तराधिकार के प्रकाश में ही गाँधी की कर्म-प्रणाली, चिंतन और जीवन-पद्धति का सही अर्थ खुलता है। `िहन्दुत्व' में परम्परा के विभिन्न स्रोतों का समावेश है, जिसका चरम है 'सर्व धर्म समान रूप से सत्य है।' इसी दृष्टिकोण का एक दूसरा परिणाम है 'मध्यम मार्ग'। सब समान भाव से सही हैं तो सबकी उपलब्धियों को स्वीकार कर समन्वित दृष्टि अपनाना है।
गाँधीजी किसी भी विषय को जीवन के सम्पूर्ण अंगों से जोड़कर, परिवेश की समग्रता के भीतर रखकर देखते थे। उनकी रस-दृष्टि (शान्तं, सरलं, सुंदरम्) शिल्प-दृष्टि (सहजता, स्वदेशीपन, उपयोगिता) से जुड़ी है, शिल्प-दृष्टि कुटीर उद्योग के अर्थशास्त्र से, अर्थशास्त्र जुड़ा है सर्वोदय समाजशास्त्र से, सर्वोदय समाजशास्त्र से जुड़ा है सामूहिक शील और राष्ट्रीय चरित्र, फिर ये जुड़े हैं व्यक्तिगत 'शील' और आचार से, व्यक्तिगत शील और आचार जुड़े हैं भोजन और शिक्षा से...। इस तरह चिंतन की समग्रता का वृत्त बनता जाता है।
आज विभिन्न क्षेत्रों में गहराती समस्याओं का मूल इसी समग्र दृष्टि के अभाव में है। हर ओर छोटे-छोटे द्वीप अपने-अपने टुच्चे स्वार्थ और सीमित घेरे हमारे विस्तार को अवरुद्ध करते दिखायी देते हैं। फलस्वरूप युवा-पीढ़ी की ऊर्जस्वी चेतना विकास का आकाश न पाकर दमित, अवदमित और कुंठित होती जा रही है। यह अवदमन उसके संस्कारों में विकृतियों का प्रवेश करवाता है। हम कारण न देखकर युवाओं की प्रवृत्ति को कोसने में अपना बड़प्पन मान लेते हैं। कुबेरनाथ राय आज की भयावह स्थिति में साहित्य और साहित्यकार के दायित्व को विशेष महत्त्व देते हैं, क्योंकि वे प्रेमचंद के समान ही मानते हैं कि ''लेखक केवल मज़दूर नहीं, बल्कि और कुछ है - वह विचारों का आविष्कारक और प्रचारक भी है।'' वे लेखक को 'द्रष्टा' या 'ऋषि' की भूमिका में ग्रहण करते हैं।
गाँधीजी तो साधारण राजनीतिक कार्यकर्ता तक के लिए 'सत्याग्रही' होने की शर्त रखते हैं, फिर कवि या साहित्यकार के लिए तो सत्य से अलग राह ही नहीं है। उनके अनुसार सच बोलना ही सर्वोत्तम कविता है। गाँधीजी की दृष्टि में साहित्यकार का दायित्व भी यही है कि वह सत्य के प्रति ईमानदार रहे और सत्य के लिए एक सांस्कारिक और मानसिक वातावरण तैयार करे। जिससे मनुष्य को 'अभय' की उपलब्धि हो तथा मनुष्य में अन्तर्निहित आत्मिक क्षमताओं का विकास हो।
गाँधीजी की मान्यताओं को आज के समय में भी कसौटी पर कस कर परखा जाना चाहिए। गाँधीजी ने अपने जीवन को स्वयं ही 'सत्य प्रयोग' कहा है। वे कर्मयोगी थे। उनकी सारी विचारधारा उनके आजीवन व्यापी क्रियायोग में कार्य के रूप में अभिव्यक्त हुई है। साहित्यकार की प्रतिबद्धता किसी मंच, दल या विचारधारा से होने पर भी उसका केन्द्राय स्थान 'मनुष्य' ही होगा। जिसे हम जन, जनता और सामान्य आदमी कहते हैं, कभी जब सचाई उसके विरुद्ध हो - तब साहित्यकार किसका साथ दे? श्री राय के अनुसार गाँधीजी का भी यही उत्तर होगा कि सच का साथ दिया जाये, क्योंकि जन को उसके भोलेपन के कारण संबंधित स्वार्थ बहका सकते हैं।
श्री राय रवीन्द्रनाथ को गाँधीजी के पूरक के रूप में देखते हैं, क्योंकि दोनों का मौलिक उद्देश्य था जीवन को बढ़ती हुई यांत्रिक जटिलता, असहजता से मुक्त करके उसे पुन: सहज, सरल और निर्मल रूप में प्रतिष्ठित करना। स्वयं रवीन्द्रनाथ ने कहा था, 'महात्माजी तपस्या के पैगम्बर हैं और मैं हूँ आनन्द का कवि।'
गाँधी-चिंतन की संपूर्णता और भारत की आत्मा को सही-सही और पूरा उद्घाटित करने वाली कविता श्री राय की राय में रवीन्द्रनाथ की वह कविता है, जिसका प्रारम्भ होता है, 'चित्त जेथा भयशून्य' शब्द से।
कविता का हिंदी अनुवाद है -
''जहाँ चित्त भयशून्य है, शीश ऊँचा है, ज्ञान मुक्त है, जहाँ वाक्य हृदय के उत्स से जन्म लेते हैं, जहाँ देश-देशान्तर दिशा-दिशा में कर्मधारा सहस्र स्रोतों में चरितार्थ हो रही है, जहाँ तुच्छ विधि-निषेधों और आचार कर्मकाण्ड की मरुभूमि में विचारों का स्रोत-पथ लुप्त नहीं हो गया है, जहाँ पौरुष सौ टुकड़ों में बँटकर व्यर्थ नहीं जाता है, जहाँ सारे कर्म, चिंतन और आनंद की ओर ले जाने वाले (नेता) तुम ही हो।
ये पंक्तियाँ हमारी अतीत श्रद्धा, वर्तमान पुरुषार्थ और उत्तरकालीन आकांक्षा का प्रतिनिधित्व करती हैं। कविता रवीन्द्रनाथ की है, पर इसकी पंक्ति-पंक्ति में गाँधीजी की आत्मा उतर आयी है।
यद्यपि गाँधीजी का दिया हुआ समाधान बड़ा कठिन है, परन्तु लक्ष्य जितना बड़ा है - मनुष्य के मंगल का स्थायी समाधान - तो साधन भी उतना ही कठिन होगा।
गाँधी-चिंतन के व्यावहारिक सूत्र आज ही अपनी परिणति तक नहीं पहुँचेंगे। परंतु उस समय तक के लिए हमें मनुष्य के हाथों को, उसकी चेतना को इच्छित शैली में प्रशिक्षित करते रहना ज़रूरी है। श्री राय पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि एक दिन ऐसा आयेगा कि सभी को सर्वोदय और गाँधीजी की ज़रूरत अनिवार्य लगेगी। सच तो यह है कि इस शताब्दी में गाँधीवादी चिंतन जैसा सुलझा हुआ क्रमबद्ध और पूर्णांग चिंतन अभी तक आया ही नहीं।
गाँधी-चिंतन को व्यक्त कर श्री राय ऋषि-ऋण से मुक्त होने और भारतीय रचनाकार की दायित्व-चेतना से जुड़ने का अनुभव करते हैं। आधुनिक जीवन की यांत्रिकता, जड़ता और उलझी मनोवृत्ति का मूल कारण अर्थ और काम को प्रभुत्व, लगभग एकतरफ़ा साम्राज्य प्राप्त होना है। श्री राय का दृढ़ विश्वास है कि समाधान में गाँधीवादी चिंतन के बहुत से सूत्र सहायक होंगे। उनका कहना है, ''21वीं शती के दो-तीन दशकों के बाद ही मनुष्य को बाध्य होकर राजनीति और अर्थनीति को 'मनुष्य केन्द्रित' करना ही होगा। इस 20वीं शती को तब इतिहासकार 'अंधकार-युग' की संज्ञा देंगे और 'मनुष्य केन्द्रित' राजनीति और अर्थनीति का उदय ही मनुष्य जाति के इतिहास का 'दूसरा पुनर्जागरण युग' कहा जायेगा।''
एक द्रष्टा कवि व मनीषी की भविष्यवाणी के प्रकट होने का समय निकट है
कुबेर नाथ राय...एक परिचय
कुबेर नाथ राय (मार्च 26,1933-5,1996 जून) . जन्मस्थान: माट्सा , गाजीपुर, उत्तर प्रदेश,. शिक्षा: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और कलकत्ता विश्वविद्यालय. 1958 से कॉलेज नलबाड़ी, अंग्रेजी विभाग में एक अध्यापक के रूप में असम में 1986. 1986 से स्वामी सहजानंद पी जी में कॉलेज, गाजीपुर प्रधानाचार्य के रूप में . : किताबें प्रिया नीलकंठी , रास आकेह्तक , मेघ्मादन , निषाद बांसुरी, विषद योग, पर्द्मुकुत , महाकवि की तर्जनइ , पात्र मदिपुतुल के नाम, मान्वाचन की नौका , किरात नदी में चंद्रमुख , दृष्टी अभिसार , त्रेता का वृहत साम , कामधेनु , मराल . पुरस्कार: मूर्तिदेवी (भारती ज्ञानपीठ) उत्तर प्रदेश और असम सरकार की ओर से कई पुरस्कारों
गोपाल सिंह नेपाली
गोपाल सिंह नेपाली (1911 - 1963) हिन्दी एवं नेपाली के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होने बम्बइया हिन्दी फिल्मों के लिये गाने भी लिखे। वे एक पत्रकार भी थे जिन्होने "रतलाम टाइम्स", चित्रपट, सुधा, एवं योगी नामक चार पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। सन् १९६२ के चीनी आक्रमन के समय उन्होने कई देशभक्तिपूर्ण गीत एवं कविताएं लिखीं जिनमें 'सावन', 'कल्पना', 'नीलिमा', 'नवीन कल्पना करो' आदि बहुत प्रसिद्ध हैं।
जीवनी
गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त, 1911 को बिहार के पश्चिमी चम्पारन के बेतिया में हुआ था। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह है। 17 अप्रैल, 1963 को इनका निधन हो गया था।
साहित्य सृजन
1933 में बासठ कविताओं का इनका पहला संग्रह ‘उमंग’ प्रकाशित हुआ था। ‘पंछी’ ‘रागिनी’ ‘पंचमी’ ‘नवीन’ और ‘हिमालय ने पुकारा’ इनके काव्य और गीत संग्रह हैं। नेपाली ने सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साथ ‘सुध’ मासिक पत्र में और कालांतर में ‘रतलाम टाइम्स’, ‘पुण्य भूमि’ तथा ‘योगी’ के संपादकीय विभाग में काम किया था। मुंबई प्रवास के दिनों में नेपाली ने तकरीबन चार दर्जन फिल्मों के लिए गीत भी रचा था। उसी दौरान इन्होंने ‘हिमालय फिल्म्स’ और ‘नेपाली पिक्चर्स’ की स्थापना की थी। निर्माता-निर्देशक के तौर पर नेपाली ने तीन फीचर फिल्मों-नजराना, सनसनी और खुशबू का निर्माण भी किया था।
साहित्यिक विशेषताएँ
उत्तर छायावाद के जिन कवियों ने कविता और गीत को जनता का कंठहार बनाया, गोपाल सिंह ‘नेपाली’ उनमें अहम थे। बगैर नेपाली के उस दौर की लोकप्रिय कविता का जो प्रतिमान बनेगा, वह अधूरा होगा।
विशिष्ट प्रसंग
गोपाल सिंह नेपाली के पुत्र नकुल सिंह नेपाली ने बम्बई उच्च न्यायालय में स्लमडॉग मिलेनियर के निर्माताओं के खिलाफ एक याचिका दायर की है, जिसमें यह कहा गया है कि डैनी बॉयल ने दर्शन दो घनश्याम गाने के लिए सूरदास को उद्धृत किया है, जो गलत है ।
याचिका के अनुसार नेपाली ने यह कहा है कि यह गाना उनके कवि पिता ने लिखा था और डैनी बॉयल तथा सेलॉदर फिल्म्स लिमिटेड ने उनके पिता की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाया है एवं लेखकीय अधिकारों का उल्लंघन किया है ।
नेपाली ने मुआवजा के रुप में रु. ५ करोड और याचिका दायर होने की तिथि से निर्णय होने तक २१ प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से ब्याज का दावा किया है ।
कुछ काव्य
जीवनी
गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त, 1911 को बिहार के पश्चिमी चम्पारन के बेतिया में हुआ था। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह है। 17 अप्रैल, 1963 को इनका निधन हो गया था।
साहित्य सृजन
1933 में बासठ कविताओं का इनका पहला संग्रह ‘उमंग’ प्रकाशित हुआ था। ‘पंछी’ ‘रागिनी’ ‘पंचमी’ ‘नवीन’ और ‘हिमालय ने पुकारा’ इनके काव्य और गीत संग्रह हैं। नेपाली ने सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के साथ ‘सुध’ मासिक पत्र में और कालांतर में ‘रतलाम टाइम्स’, ‘पुण्य भूमि’ तथा ‘योगी’ के संपादकीय विभाग में काम किया था। मुंबई प्रवास के दिनों में नेपाली ने तकरीबन चार दर्जन फिल्मों के लिए गीत भी रचा था। उसी दौरान इन्होंने ‘हिमालय फिल्म्स’ और ‘नेपाली पिक्चर्स’ की स्थापना की थी। निर्माता-निर्देशक के तौर पर नेपाली ने तीन फीचर फिल्मों-नजराना, सनसनी और खुशबू का निर्माण भी किया था।
साहित्यिक विशेषताएँ
उत्तर छायावाद के जिन कवियों ने कविता और गीत को जनता का कंठहार बनाया, गोपाल सिंह ‘नेपाली’ उनमें अहम थे। बगैर नेपाली के उस दौर की लोकप्रिय कविता का जो प्रतिमान बनेगा, वह अधूरा होगा।
विशिष्ट प्रसंग
गोपाल सिंह नेपाली के पुत्र नकुल सिंह नेपाली ने बम्बई उच्च न्यायालय में स्लमडॉग मिलेनियर के निर्माताओं के खिलाफ एक याचिका दायर की है, जिसमें यह कहा गया है कि डैनी बॉयल ने दर्शन दो घनश्याम गाने के लिए सूरदास को उद्धृत किया है, जो गलत है ।
याचिका के अनुसार नेपाली ने यह कहा है कि यह गाना उनके कवि पिता ने लिखा था और डैनी बॉयल तथा सेलॉदर फिल्म्स लिमिटेड ने उनके पिता की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाया है एवं लेखकीय अधिकारों का उल्लंघन किया है ।
नेपाली ने मुआवजा के रुप में रु. ५ करोड और याचिका दायर होने की तिथि से निर्णय होने तक २१ प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से ब्याज का दावा किया है ।
कुछ काव्य
- अपनेपन का मतवाला / गोपाल सिंह नेपाली
- गरीब का सलाम ले / गोपाल सिंह नेपाली
- दीपक जलता रहा रातभर / गोपाल सिंह नेपाली
- नवीन कल्पना करो / गोपाल सिंह नेपाली
- प्रार्थना बनी रही / गोपाल सिंह नेपाली
- बदनाम रहे बटमार / गोपाल सिंह नेपाली
- मुसकुराती रही कामना / गोपाल सिंह नेपाली
- मेरा धन है स्वाधीन कलाम / गोपाल सिंह नेपाली
- मेरी दुल्हन सी रातों को ... / गोपाल सिंह नेपाली
- यह दिया बुझे नहीं / गोपाल सिंह नेपाली
- यह लघु सरिता का बहता जल / गोपाल सिंह नेपाली
- वसंत गीत / गोपाल सिंह नेपाली
- सरिता / गोपाल सिंह नेपाली
- स्वतंत्रता का दीपक / गोपाल सिंह नेपाली
- हिमालय और हम / गोपाल सिंह नेपाली
- हिमालय ने पुकारा / गोपाल सिंह नेपाली
शायद अगर इसाफ़ तभी हो जाता तो यह नॊबत नही आती....अंकुर राय .... पिता की हत्या का बदला
पूर्व विधायक कपिलदेव यादव की चार जुलाई को घोसी कोतवाली क्षेत्र के मझवारा बाजार में दिनदहाड़े हत्या कर दी गयी थी।
एडीजी बृज लाल ने बताया कि राज्य मानवाधिकार आयोग (एसएचआरसी) के सामने दो युवकों ने पेश होकर एसपी के पूर्व एमएलए की हत्या में अपना हाथ होना कबूल किया है। दोनों ने बताया कि पुरानी दुश्मनी के चलते उन्होंने एसपी के पूर्व विधायक की हत्या की। दोनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है।
प्रारंभिक जांच के अनुसार हत्या के एक पुराने मामले, जिसमें एसपी के पूर्व विधायक कथित रूप से आरोपी थे, का बदला लेने के लिए आरोपियों ने हत्या की वारदात को अंजाम दिया। कपिल देव राय की हत्या में गिरफ्तार आरोपी अंकुर राय ने बताया कि उसके पिता की फरवरी 2001 में हत्या कर गई थी। इस मामले में तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिसमें पवन कुमार यादव, अशोक और पूर्व विधायक कपिल देव यादव को नामजद किया गया था।शायद अगर इसाफ़ तभी हो जाता तो यह नॊबत नही आती.
एसपी ओंकार सिंह ने बताया कि 24 फरवरी 2001 को सहरोज के अंकुर के पिता रामदरस राय की हत्या हुई थी। इसमें पवन यादव व अशोक के साथ ही पूर्व विधायक कपिलदेव भी आरोपी थे। अंकुर ने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए कपिलदेव की हत्या कर दी। पुलिस कप्तान ने बताया कि 2006 में कपिलदेव यादव के काफिले पर फायरिंग की गयी थी। उसमें मनोज राय भी अभियुक्त हैं। मनोज अपने प्रतिद्वंद्वी पूर्व विधायक को रास्ते से हटाकर वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे। इसके चलते अंकुर राय के साथ योजना बनाकर इस घटना को अंजाम दिलाया।
बृजलाल के अनुसार कपिल देव यादव ने अंकुर राय के पिता की हत्या की थी, जिसका बदला लेने के लिये अंकुर राय बेचैन था।
आखिर बृजलाल जी ये क्यो नही समझ रहे कि हत्यारा अन्कुर नही कानून व्यवस्था है जिसने कलम पकड्ने वाले हाथो को खून के रंग दिया
एडीजी बृज लाल ने बताया कि राज्य मानवाधिकार आयोग (एसएचआरसी) के सामने दो युवकों ने पेश होकर एसपी के पूर्व एमएलए की हत्या में अपना हाथ होना कबूल किया है। दोनों ने बताया कि पुरानी दुश्मनी के चलते उन्होंने एसपी के पूर्व विधायक की हत्या की। दोनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है।
प्रारंभिक जांच के अनुसार हत्या के एक पुराने मामले, जिसमें एसपी के पूर्व विधायक कथित रूप से आरोपी थे, का बदला लेने के लिए आरोपियों ने हत्या की वारदात को अंजाम दिया। कपिल देव राय की हत्या में गिरफ्तार आरोपी अंकुर राय ने बताया कि उसके पिता की फरवरी 2001 में हत्या कर गई थी। इस मामले में तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिसमें पवन कुमार यादव, अशोक और पूर्व विधायक कपिल देव यादव को नामजद किया गया था।शायद अगर इसाफ़ तभी हो जाता तो यह नॊबत नही आती.
एसपी ओंकार सिंह ने बताया कि 24 फरवरी 2001 को सहरोज के अंकुर के पिता रामदरस राय की हत्या हुई थी। इसमें पवन यादव व अशोक के साथ ही पूर्व विधायक कपिलदेव भी आरोपी थे। अंकुर ने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए कपिलदेव की हत्या कर दी। पुलिस कप्तान ने बताया कि 2006 में कपिलदेव यादव के काफिले पर फायरिंग की गयी थी। उसमें मनोज राय भी अभियुक्त हैं। मनोज अपने प्रतिद्वंद्वी पूर्व विधायक को रास्ते से हटाकर वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे। इसके चलते अंकुर राय के साथ योजना बनाकर इस घटना को अंजाम दिलाया।
बृजलाल के अनुसार कपिल देव यादव ने अंकुर राय के पिता की हत्या की थी, जिसका बदला लेने के लिये अंकुर राय बेचैन था।
आखिर बृजलाल जी ये क्यो नही समझ रहे कि हत्यारा अन्कुर नही कानून व्यवस्था है जिसने कलम पकड्ने वाले हाथो को खून के रंग दिया
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
राजनरायण के आदर्श अनुकरणीय
Apr 11, 12:17 am
दैनिक जागरण
मऊ । जो समाज अपने महापुरुषों का सम्मान नहीं करता है वह मिट जाता है। आज ऐसी दशा भूमिहार समाज की है। देश की आजादी के लिये क्रांति की ज्वाला धधकाने वाले सांसद जय बहादुर सिंह व झारखंडे राय की प्रतिमा अनावरण की बाट जोह रही है। यह भूमिहार वंश के जाबाज राजनीतिज्ञों का अपमान है। इसको भूमिहार बर्दास्त नहीं करेंगे। समाजवादी पार्टी के शासनकाल में भूमिहारों का ज्यादा उत्थान हुआ था। इन दोनों महापुरुषों की प्रतिमा सपा के शासनकाल में ही जनपद में आयी थी। यह बातें बुजुर्ग सपा नेता शिक्षाविद् उमराव राय ने शनिवार को भीटी स्थित तमसा गेस्ट हाउस में सपा भूमिहार प्रकोष्ठ के सम्मेलन में कही।
उन्होंने कहा कि प्रखर समाजवादी राज नारायण के आदर्शो पर सपा सुप्रीमो चलते हैं। किंतु कोई पार्टी भगवान परशुराम के वंशजों के उत्थान के बारे में नहीं सोचती। सपा अधिवक्ता प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय सचिव हरिद्वार राय ने कहा कि कभी भूमिहार समाज के नाम से इस जिले की पहचान थी किंतु आज राजनीति में भागीदारी शून्य है। भूमिहारों के नेता राजनारायण रहे हैं। कार्यक्रम के संयोजक अशोक राय ने कहा कि राजनीति के ऊपर उठकर सबकी मदद करते हैं। यदि प्रशासन ने झारखण्डे राय एवं जय बहादुर सिंह की कलेक्ट्रेट में मूर्तियों का जल्दी अनावरण नहीं कराया तो भूमिहार सपा के साथ मिलकर मूर्ति का अनावरण खुद कर देंगे। इस अवसर पर जिलाध्यक्ष अल्ताफ अंसारी, शशि प्रकाश राय, पंकज राय, बृजेश राय, देवेन्द्र राय, राजेश राय, सुनील राय, जयप्रकाश राय, डा.अलका राय, अतुल राय, बृजेन्द्र राय, अनूप राय, संतोष राय, धनन्जय राय सहित कई मौजूद रहे।
श्री कृष्ण सिन्हा
श्री कृष्णा (सिंह) (श्री बाबू) सिन्हा (1887-1961), बिहार केसरी के रूप में जाना जाता है, बिहार के (1946-1961) के पहले मुख्यमंत्री थे. प्रख्यात राष्ट्रवादी डॉ. राजेंद्र प्रसाद और Dr.Anugrah नारायण सिन्हा और श्री बाबू आधुनिक बिहार के आर्किटेक्ट्स माना जाता है .. श्री बाबू पहले कांग्रेस मंत्रालय से 1937 में 1961 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे . श्री कृष्णा सिन्हा ने प्रतिष्ठित बैधनाथ धाम मंदिर में है दलितो को प्रवेश कि अनुमती दिलयी..उनके नेतृत्व में दलित उत्थान और सामाजिक प्रतिबद्धता तथा दलितों का सशक्तिकरण किया गया.. श्री कृष्ण सिन्हा ने देश के पहली बार मुख्यमंत्री थे जिन्होने बिहार में जमींदारी प्रथा की समाप्ति करायी...
आजादी की जंग मे आठ साल कारावास मे बिताया..
हाल ही में भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने बाबू और भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू के बीच विनिमय पत्रो की र एक पुस्तक जारी की .
नेहरू श्री बाबू के पत्राचार मे मुख्य रूप सेविभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दो जैसे भारतीय लोकतंत्र और आजादी , राज्यपाल, केन्द्र राज्य संबंधों की भूमिका, नेपाल, जमींदारी उन्मूलन और शिक्षा के परिदृश्य में अशांति है..
श्री बाबू. को उसकी विद्वता और पांडित्य के लिए जाना था.उन्होने खुद ही 17000 पुस्तकों के अपने निजी संग्रह को 1959 में मुंगेर में श्री कृष्णा सेवा सदन नामक सार्वजनिक बना दिया.
परिवार
श्री बाबू का जन्म अपने नाना के घर में 21 अक्टूबर 1887 को खन्वा में हुआ था.. आपका पैतृक गांव मौर मुंगेर जिले (शेखपुरा जिले) था . उनके पिता एक धार्मिक विचार वाले, मध्यम भूमिहार ब्राह्मण थे. उसकी माँ भी एक बहुत ही सरल और धार्मिक विचारों वाले व्यक्ति थी. जब श्री बाबू सिर्फ पाँच साल के थे तब ही मां की मृत्यु हो गई. अपने गांव के स्कूल में अपनी प्रारंभिक शिक्षा पाकर बाद में 1906 में पटना कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय में शामिल हुए. वे वकालत पडे और मुंगेर मे 1915 से अभ्यास शुरू.किय.. इस दौरान, उन्होंने शादी की और दो बेटों, शिवशंकर सिंह और बन्दिशंकर का जन्म हुआ.
आजादी...Freedom struggle
वह पहले केन्द्रीय हिंदू कॉलेज, बनारस और बाद शाह मुहम्मद जुबैर के घर पर महात्मा गांधी से मिले. मुंगेर में करने के लिए ब्रिटिश शासन से भारत को मुक्त की कसम खाई. वह 1915 में कानून का अभ्यास शुरू कर दिया था, लेकिन उसे छोड़ दिया करने के लिए 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे.
शाह मुहम्मद जुबैर के घर पर 1922 में पहली बार गिरफ्तार किया गया था और कांग्रेस सेवादल को गैरकानूनी घोषित कर दिया. इस कार्रवाई के बाद लोगों द्वारा इन्हे बिहार केसरी घोषित किया गया . जेल से 1923 में रीहा किया गया था और तुलसी जयंती के दिन सेंट्रल स्कूल, खड़गपुर मे भारत दर्शन पर नाट्क प्रदर्शन किया गया. उसी वर्ष में उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य बन गए.
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1927 में, वह विधान परिषद के सदस्य बने और 1929 में बिहार प्रदेश कांग्रेस समिति के महासचिव बन गए. 1929 में प्रसिद्ध स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा शुरू किसान सभा के महासचिव बने . 1930 में, श्री बाबू में नमक सत्याग्रह किया. गिरफ्तारी के दौरान हाथ और छाती को जला कर गंभीर चोटे दी गयी. सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान उन्होंने दो साल के लिए गिरफ्तार किया गया था . गांधी इरविन संधि के बाद छोड दिया गया और फिर से किसान सभा के साथ काम शुरू कर दिया.
9 जनवरी, 1932 पर वह फिर से गिरफ्तार कर लिया और दो साल कीकठोर कारावास और१००० रुपये का जुर्माना किया गया था . वह हजारीबाग जेल से अक्टूबर, 1933 में छुटे. 1934 बिहार में भूकंप के बाद उन्होंने राहत और पुनर्वास का काम किया... 1934-37 से मुंगेर जिला परिषद के अध्यछ थे. सन् 1935 में, वह सेंट्रल असेंबली के सदस्य बन गए.
20 जुलाई 1937 मेंजब कांग्रेस सत्ता में आया,तब आप को बिहार प्रांत के प्रीमियर प्रधानमंत्री बनया गया था. वे और उनके करीबी सहयोगी बिहार विभूति अनुग्रह बाबू राजनीतिक कैदियों के रिहाई के मुद्दे पर राज्यपाल के साथ असहमत थे और इस्तीफा दे दिया. तब राज्यपाल ने इनके सभी माग को स्वीकार किया . पुनः कार्य भार लिया. लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय लोगों की सहमति के बिना भारत को शामिल करने के सवाल पर फिर से 1939 में सभी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया.
1940 में, रामगढ़, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 53 वें नेशनल कन्वेंशन मे महात्मा गांधी की प्रेरणा पर बिहार से पहली बार व्यक्तिगत सत्याग्रही बने .जब भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में शुरू की, तब 10 अगस्त को गिरफ्तार किया गया और नौ महीने के लिए जेल (22 नवम्बर 1940 - 26 अगस्त 1941). 1944 में हजारीबाग जेल से रिहा किया गया....
उसी वर्ष में उन्होंने वेल्स मेडिकल कॉलेज मे अपनी पत्नी को खो दिया.
शिमला सम्मेलन में भाग लिया और भारत के संविधान सभा के सदस्य भी थे.
डा. सिन्हा लगातार 73 वर्ष की उम्र मे अपने 31 जनवरी 1961 से मृत्यु तक बिहार की सेवा की. 1978 में उनके सम्मान में, संस्कृति मंत्रालय श्रीकृष्ण विज्ञान केन्द्र संग्रहालय शुरू कर दिया. पटना में सम्मेलन कक्ष, श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल भी उसके नाम पर है.
बुधवार, 18 अगस्त 2010
.सच कितने भूलक्कड है हम
आप को याद है ना वो मुंबई की सड़क पर सरेआम पिस्तौल लहरा रहा युवक -राहुल राज. राहुल राज इनकाउंटर की नैतिकता और लाखों वादे
इस घटना से बाद बिहार में जगह-जगह ट्रेनें जला रहे, तोड़फोड़, पथराव कर रहे छात्र राज ठाकरे से अधिक अपने नेताओं लालू-नीतीश के लिए अपशब्दों का प्रयोग कर रहे थे. नारे लगा रहे थे. उनमें यह भाव था कि पलायन की विवशता के लिए जिम्मेवार अपने ही नेता हैं. राहुल राज के इनकाउंटर के बाद ही राजनेताओं ने राहत की सांस ली. लालू, नीतीश व रामविलाजी ने उसे शहीद, शेरे बिहार, बिहार का सपूत और न जाने क्या-क्या कहा. इससे एक रोज पहले तक नीतीश महाराष्ट्र में बिहारी युवकों की पिटाई के बाद बिहार में घट रही तोड़फोड़ की घटनाओं से बेहद चिंतित थे. उन्होंने संचार माध्यमों को कहा था कि न कुछ ऐसा छापा जाए, न दिखाया जाए, जिससे बिहार की भावना भड़के. लेकिन इस युवक के मारे जाने के बाद परिदश्य बदल गया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, रेलमंत्री लालू प्रसाद व रसायन मंत्री रामविलास पासवान अपने-अपने तरीके से राहुल राज के एनकाउंटर को को तूल देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वास्तव में राहुल की हत्या ने ही बिहारी आक्रोश की धारा पूरी तरह राज ठाकरे और महाराष्ट्र सरकार की ओर मोड़ दी है. बिहार के राजनेताओं का अभिष्ट भी यही था. राजनताओं में राहुल की अंतयेष्टि में शामिल होने, उसके घर जाकर सांत्वना देने की होड़ लग गयी. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, सुशील कुमार मोदी (उपमुख्यमंत्री), दीपंकार भट्टाचार्य (माले महासचिव), अनिल शर्मा (प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष), समेत कई बडे-छोटे नेता उसके घर पहुंचे. बाहुबली सांसद सूरजभान सिंह, राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह (प्रदेष अध्यक्ष, जदयू) गिरिराज सिंह (सहाकारिता राज्य मंत्री, बिहार), अखिलेश सिंह (केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री) समेत एक खास जाति के कई राजनेताओं ने राहुल के घर जाकर 'न्याय' दिलाने का वादा किया.
लालू प्रसाद ने राहुल राज की हत्या के बाद टीवी कैमरे के सामने बेतरह गुस्सा दिखाते हुए कहा कि महाराष्ट्र सरकार पगला गयी है. उन्होंने बताया कि राहुल एक 'संभ्रात' परिवार का लड़का था. हमेशा जाति के संदर्भ के साथ बात करने वाले लालू प्रसाद के इस संकेत का अर्थ बिहार के लोग समझते हैं. राहुल का जन्म एक उंची जाति के (भुमिहार) परिवार में हुआ था. लालू कहना चाह रहे थे कि उसे 'गरीब-गुरबा' न समझा जाए. संभ्रांत परिवार का था.
राहुल ने रेडियोलॉजी में डिप्लोमा किया था और २४ अक्टूबर को घर से मुंबई जाते हुए यह कह गया था कि वह नौकरी तलाशने जा रहा है. २५ या २६ अक्टूबर को वह मुंबई पहुंचा और दूसरे दिन ही यह कांड सामने आया. वह पटना के कदमकुआं मुहल्ले के एक मध्यवर्गीय परिवार का लड़का था.
समय बीता और एक बलिदान यू ही भुला दिया हमने....सच कितने भूलक्कड है हम
इस घटना से बाद बिहार में जगह-जगह ट्रेनें जला रहे, तोड़फोड़, पथराव कर रहे छात्र राज ठाकरे से अधिक अपने नेताओं लालू-नीतीश के लिए अपशब्दों का प्रयोग कर रहे थे. नारे लगा रहे थे. उनमें यह भाव था कि पलायन की विवशता के लिए जिम्मेवार अपने ही नेता हैं. राहुल राज के इनकाउंटर के बाद ही राजनेताओं ने राहत की सांस ली. लालू, नीतीश व रामविलाजी ने उसे शहीद, शेरे बिहार, बिहार का सपूत और न जाने क्या-क्या कहा. इससे एक रोज पहले तक नीतीश महाराष्ट्र में बिहारी युवकों की पिटाई के बाद बिहार में घट रही तोड़फोड़ की घटनाओं से बेहद चिंतित थे. उन्होंने संचार माध्यमों को कहा था कि न कुछ ऐसा छापा जाए, न दिखाया जाए, जिससे बिहार की भावना भड़के. लेकिन इस युवक के मारे जाने के बाद परिदश्य बदल गया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, रेलमंत्री लालू प्रसाद व रसायन मंत्री रामविलास पासवान अपने-अपने तरीके से राहुल राज के एनकाउंटर को को तूल देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वास्तव में राहुल की हत्या ने ही बिहारी आक्रोश की धारा पूरी तरह राज ठाकरे और महाराष्ट्र सरकार की ओर मोड़ दी है. बिहार के राजनेताओं का अभिष्ट भी यही था. राजनताओं में राहुल की अंतयेष्टि में शामिल होने, उसके घर जाकर सांत्वना देने की होड़ लग गयी. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, सुशील कुमार मोदी (उपमुख्यमंत्री), दीपंकार भट्टाचार्य (माले महासचिव), अनिल शर्मा (प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष), समेत कई बडे-छोटे नेता उसके घर पहुंचे. बाहुबली सांसद सूरजभान सिंह, राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह (प्रदेष अध्यक्ष, जदयू) गिरिराज सिंह (सहाकारिता राज्य मंत्री, बिहार), अखिलेश सिंह (केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री) समेत एक खास जाति के कई राजनेताओं ने राहुल के घर जाकर 'न्याय' दिलाने का वादा किया.
लालू प्रसाद ने राहुल राज की हत्या के बाद टीवी कैमरे के सामने बेतरह गुस्सा दिखाते हुए कहा कि महाराष्ट्र सरकार पगला गयी है. उन्होंने बताया कि राहुल एक 'संभ्रात' परिवार का लड़का था. हमेशा जाति के संदर्भ के साथ बात करने वाले लालू प्रसाद के इस संकेत का अर्थ बिहार के लोग समझते हैं. राहुल का जन्म एक उंची जाति के (भुमिहार) परिवार में हुआ था. लालू कहना चाह रहे थे कि उसे 'गरीब-गुरबा' न समझा जाए. संभ्रांत परिवार का था.
राहुल ने रेडियोलॉजी में डिप्लोमा किया था और २४ अक्टूबर को घर से मुंबई जाते हुए यह कह गया था कि वह नौकरी तलाशने जा रहा है. २५ या २६ अक्टूबर को वह मुंबई पहुंचा और दूसरे दिन ही यह कांड सामने आया. वह पटना के कदमकुआं मुहल्ले के एक मध्यवर्गीय परिवार का लड़का था.
समय बीता और एक बलिदान यू ही भुला दिया हमने....सच कितने भूलक्कड है हम
काशी नरेश ऒर लग्डा आम
लगभग ढाई सौ वर्ष पहले की घटना है। कहते हैं, बनारस के एक छोटे-से शिव-मंदिर में, एक साधु आया और मंदिर के पुजारी से वहां कुछ दिन ठहरने की आज्ञा माँगी। पुजारी ने मंदिर परिसर में ठहरएँ।
साधु के पास आम के दो छोटे-छोटे पौधे थे, जो उसने मंदिर के पीछे अपने हाथों से रोप दिये। सुबह उठते ही वह सर्वप्रथम उनको पानी दिया करता। साधु ने बड़े मनोयोग के साथ उन पौधों की देखरेख की। वह चार साल तक वहां ठहरा। इन चार बरसों में पेड़ काफी बड़े हो गये। चौथे वर्ष आम की मंजरियाँ भी निकल आयीं, जिन्हें तोड़कर उस साधु ने भगवान शंकर पर चढ़ायीं। फिर वह लंगडे पुजारी से बोला, ``मेरा काम पूरा हो गया। मैं तो रमता जोगी हूं। कल सुबह ही बनारस छोड़ दूंगा। तुम इन पौधों की देखरेख करना और इनमें फल लगें, तो उन्हें कई भागों में काटकर भगवान शंकर पर चढ़ा देना, फिर प्रसाद के रूप में भक्तों में बांट देना, लेकिन भूलकर भी समूचा आम किसी को मत देना। किसी को न तो वृक्ष की कलम लगाने देना और न ही गुठली देना। गुठलियों को जला डालना, वरना लोग उसे रोपकर पौधे बना लेंगे।'' और वह साधु बनारस से चला गया।
मंदिर के पुजारी ने बड़े चाव से उन पौधों की देखरेख की। कुछ समय पश्चात पौधे पूरे वृक्ष बन गये। हर साल उनमें काफी फल लगने लगे। पुजारी ने वैसा ही किया, जैसा कि साधु ने कहा था। जिन लोगों ने उस आम को प्रसाद के रूप में खाया, वे लोग उस आम के स्वाद के दीवाने हो गये। लोगों ने बार-बार पुजारी से पूरा आम देने की याचना की, ताकि उसकी गुठली लाकर वे उसका पौधा बना सकें, पर पुजारी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया।
इस आम की चर्चा काशी नरेश के कानों तक पहुँची और वह एक दिन स्वयं वृक्षों को देखने राम-नगर से मंदिर में आ पहुंचे। उन्होंने श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की पूजा की और वृक्षों का निरीक्षण किया। फिर पुजारी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि इनकी कलमें लगाने की अनुमति प्रधान-माली को दे दें। पुजारी ने कहा, ``आपकी आज्ञा को मैं भला कैसे टाल सकता हूँ। मैं आज ही सांध्य-पूजा के समय शंकरजी से प्रार्थना करूंगा और उनका संकेत पाकर स्वयं कल महल में आकर सरकार का दर्शन करूंगा और मंदिर का प्रसाद भी लेता आऊँगा।''
इसी रात भगवान शंकर ने स्वप्न दिया, ``काशी नरेश के अनुरोध को मेरी आज्ञा मानकर वृक्षों में कलम लगवाने दें। जितनी भी कलमें वह चाहें, लगवा लें। तुम इसमें रुकावट मत डालना। वे काशीराज हैं और एक प्रकार से इस नगर में हमारे प्रतिनिधि स्वरूप हैं।'' दूसरे दिन प्रातकाल की पूजा समाप्त कर प्रसाद रूप में आम के टोकरे लेकर पुजारी काशी नरेश के पास पहुँचा। राजा ने प्रसाद को तत्काल ग्रहण किया और उसमें एक अलौकिक स्वाद पाया।
काशी नरेश के प्रधान-माली ने जाकर आम के वृक्षों में कई कलमें लगायीं, जिनमें वर्षाकाल के बाद काफी जड़ें निकली हुई पायी गयीं। कलमों को काटकर महाराज के पास लाया गया और उनके आदेश पर उन्हें महल के परिसर में रोप दिया गया। कुछ ही वर्षों में वे वृक्ष बनकर फल देने लगे। कलम द्वारा अनेक वृक्ष पैदा किये गये। महल के बाहर उनका एक छोटा-सा बाग बनवा दिया गया। कालांतर में इनसे अन्य वृक्ष उत्पन्न हुए और इस तरह रामनगर में लंगड़े आम के अनेकानेक बड़े-बड़े बाग बन गये। आज तक इस जाति के आम सारे भारत में इसी नाम से प्रसिद्ध हैं।
यह केवल उत्सवधर्मी विश्विविद्यालय नहीं रहेगा- विभूति नारायण राय
पिछले दिनों हिन्द-युग्म के रामजी यादव और शैलेश भारतवासी ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय से बात की। विभूति नारायण राय हिन्दी के चर्चित लेखक और साहित्यकार हैं जिनकी दंगों के दौरान पुलिस के सांप्रदायिक रवैये पर लिखी पुस्तक 'शहर में कर्फ़्यू' बहुत प्रसिद्ध रही। विभूति उ॰ प्र॰ में पुलिस महानिदेशक के पद पर कार्य कर चुके हैं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय हिन्दी भाषा को समर्पित दुनिया का एक मात्र विश्वविद्यालय है। तो हमने जानने की कोशिश की कि हिन्दी भाषा-साहित्य की गाड़ी में गति लाने के लिए इनका विश्वविद्यालय क्या कुछ करने जा रहा है॰॰॰॰॰
रामजी यादव- महात्मा गाँधी अंतरर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना लगभग 10-12 वर्ष पहले हुई थी। पूरी दुनिया में फैला हुआ जो हिन्दी समाज है, उसके प्रति हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए यह उत्तरदायी है। लेकिन यह एक उत्सवधर्मी विश्वविद्यालय के रूप में विख्यात है। और लगभग इसकी उत्सवधर्मिता इसके कुलपति की महात्वकांक्षाओं तक सीमित करके देखी जाती है। इस पूरी छवि को आप कैसे बदलेंगे?
वी एन राय- विश्वविद्यालय केवल उत्सवधर्मिता का केन्द्र न रहे, बल्कि गंभीर अध्ययन और शोध का क्षेत्र भी बने, और इसके साथ-साथ इस विश्वविद्यालय की हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में ज़रूरी उपकरण प्रदान करने की जो इसकी खास भूमिका है, उसे पूरा करने में भी इसका सक्रिय योगदान हो, इस समय दिशा में यह विश्वविद्यालय काम कर रहा है। इस वर्ष नये विभाग खुले हैं। मानवशास्त्र और फिल्म-थिएटर दो विभाग शुरू किये गये हैं। इसके अलावा डायस्पोरा स्ट्डीज का नया विभाग शुरू होने वाला है। ये तीनों नये विभाग महात्मा गाँधी अंतरर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की उस भूमिका को निभाने में भी मदद करेंगे, जिसकी कल्पना इस विश्ववविद्यालय के एक्ट में की गई है और प्रथम अंतरर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में इसकी निर्मिती के पीछे जो एक परिकल्पना रही है। इसे अंतरर्राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए, शायद आप अवगत हों, विश्वविद्यालय एक बहुत महात्वपकांक्षी योजना पर काम कर रहा है वो है कि हिन्दी में जो कुछ भी बहुत महत्वपूर्ण है, उसे ऑनलाइन किया जाये ताकि दुनिया के कोने-कोने में बैठे हिन्दी के पठक उन्हें पढ़ सके। हमारी कोशिश है कि दिसम्बर 2009 तक लगभग 100000 पृष्ठ ऑनलाइन कर दिये जायें। इसके अलावा हम इन सभी महत्वपूर्ण कृतियों को दुनिया की तमाम भाषाओं में जैसे चीनी, जापानी, अरबी, फ्रेंच इत्यादि में अनुवाद करके ऑनलाइन करना चाहते हैं।
रामजी यादव- एक चीज़ मानी जाती है कि हिन्दी एक बड़ी भाषा है जो तमाम तरह के संघर्षों से निकली है। लेकिन हिन्दी में विचारों की स्थिति बहुत दयनीय है। एक विश्वविद्यालय के रूप में आपका विश्वविद्यालय किस तरह का प्रयास कर रहा है कि हिन्दी में विचार मौलिक पैदा हों और दुनिया के दूसरे अनुशासनों से इनका संबंध बने?
वी एन राय- इसके लिए भी हमने कुछ महात्वकांक्षी योजनाएँ बनाई है। हमारे विश्वविद्यालय का जो पाठ्यक्रम है वो गैरपारम्परिक पाठ्यक्रम हैं। जो विषय हमारे यहाँ पढ़ाये जा रहे हैं वह भारत के बहुत कम विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाते हैं। जैसे स्त्री-अध्ययन है, शांति और अहिंसा है, हिन्दी माध्यम में मानव-शास्त्र है, फिल्म और थिएटर या डायस्पोरा स्ट्डीज की पढ़ाई है। अनुवाद भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें हमारे यहाँ पढ़ाई हो रही है। लेकिन ज्ञान के इन अनुशासनों में मौलिक पुस्तकों की कमी है, मौलिक तो छोड़ दीजिए जो एक आधार बन सकती हों, ऐसे पाठ्यपुस्तकों की कमी है। इसलिए हमने योजना बनाई है कि हम ज्ञान के इन सारे अनुशासनों में जो कुछ भी महत्वपूर्ण अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में उपलब्ध है, उसके कुछ चुनिंदा अंशों का अनुवाद हो और उसे छापें। और यह योजना शुरू भी हो गई है, हमने स्त्री-अध्ययन के लिए 10 पुस्तकों को चुना है जिसका साल भर में हम अनुवाद करा लेंगे। इसके बाद अन्य अनुशासनों में जायेंगे।
शैलेश भारतवासी- सवाल हमारा यह था कि जो हिन्दी का साहित्यिक या वैचारिक परिदृश्य हैं, वो पूर्णतया मौलिक नहीं है। विश्वविद्यालय की तरफ से ऐस कोई प्रयास है जिससे मौलिक विचार निकलकर आये?
उत्तर- मौलिक लेखन को भी हम प्रोत्साहन देंगे, लेकिन सवाल यह है कि मौलिक लेखन के लिए भी आधारभूत सामग्री उपलब्ध हो, जिन्हें पढ़कर आप अपनी बेसिक तैयारी कर सकें। दुर्भाग्य से गंभीर समाज शास्त्रीय विषयों पर हिन्दी में मौलिक सामग्री या तो बहुत कम है या ज्यादातर अनुवाद के माध्यम से मिल रही है। पर हमारा प्रयास यह होगा कि जब हम महत्वपूर्ण चीज़ों का अनुवाद करायेंगे तो निश्चित रूप से उन्हें पढ़कर जो मौलिक सोचने वाले हैं, वे मौलिक लेखन करेंगे और उन्हें भी हम प्रकाशित करेंगे।
रामजी यादव- क्या दुनिया के अन्य देशों के विश्ववद्यालयों में जहाँ प्राच्य विद्या किसी न किसी रूप में पढ़ाई जाती है, उनके साथ विश्वविद्यालय का कोई अंतर्संबंध बन रहा है?
वी एन राय- जी, हम यह कोशिश कर रहे हैं कि बाहर के 100 विश्वविद्यालयों में जहाँ हिन्दी किसी न किसी रूप में पढ़ाई जाती है, भाषा के तौर पर, प्राच्य विद्या का एक अंग होकर या साउथ-एशिया पर विभाग हैं, उनमें हिन्दी का इनपुट है, इन सभी विश्वविद्यालयों के बीच में हम एक समन्वय सेतु का काम करें, उनमें जो अध्यापक हिन्दी पढ़ा रहे हैं, उनके लिए रिफ्रेशर कोर्सेस यहाँ पर हम संचालित करें, उनके लिए ज़रूरी पाठ्य-सामग्री का निर्माण करायें और सबसे बड़ी चीज़ है कि विदेशों से बहुत सारे लोग जो हिन्दी सीखने के लिए भारत आना चाहते हैं, उनके लिए हमारा विश्ववद्यालय एक बड़े केन्द्र की तरह काम करें, इस दिशा में भी काम चल रहा है।
शैलेश भारतवासी- जहाँ एक ओर आप विदेशी विश्वविद्यालयों से अंतर्संबंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं,वहीं अपने ही देश के बहुत से लोग जो हिन्दी भाषा या साहित्य में ही अपनी पढ़ाई कर चुके हैं या कर रहे हैं, उन्हें भी आपके विश्वविद्यालय के बारे में पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए भी इस विश्वविद्यालय का नाम एक नई चीज़ है। तो क्या आप चाहते ही नहीं कि सभी लोगों तक इसकी जानकारी पहुँचेया कोई और बात है?
वी एन राय- नहीं-नहीं, आपकी बात सही है। विश्वविद्यालय को बने 11 साल से ज्यादा हो गये, लेकिन दुर्भाग्य से बहुत बड़ा हिन्दी समाज इससे परिचित नहीं है, या उसका बहुत रागात्मक संबंध नहीं बन पाया या कोई फ्रुटफुल इंटरेक्शन नहीं हो पाया। ऐसा नहीं है कि हम नहीं चाहते, और हम इसके लिए हम प्रयास भी कर रहे हैं। मसलन हमारी वेबसाइट ही देखिए। हालाँकि हिन्दी-समाज बहुत तकनीकी समाज नहीं है, बहुत कम लोग हिन्दी वेबसाइट देखते हैं। लेकिन मुझे देखकर बहुत खुशी होती है कि हमारी वेबसाइट को रोज़ाना 150-200 लोग आते हैं और वो भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आते हैं। तो ऐसा नहीं है, धीरे-धीरे लोगों ने इसे जानना शुरू किया है।
शैलेश भारतवासी- लेकिन यहीं पर मैं रोकूँगा, आपने कहाँ कि आप 150-200 लोगों से संतुष्ट हैं (कुलपति ने यहीं रोककर इंकार किया), मेरा कहना है कि आपको 150 विजिटरों से आशा की एक किरण नज़र आती है। मैं एक साहित्यिक-सांस्कृतिक वेबसाइट चलाता हूँ, जिसे रोज़ाना 10,000 हिट्स मिलते हैं (यह दुनिया भर की वेबसाइटों के एस्टीमेटेड हिट्स निकालने वाली वेबसाइट का आँकड़ा है), फिर भी मैं संतुष्ट नहीं हूँ और इसे एक बहुत छोटी संख्या मानता हूँ। आपकी वेबसाइट पर मैं 2-3 बार गया भी हूँ। मेरा जो अनुभव है वह कहता है कि इसमें जो तकनीक इस्तेमाल की जा रही है वह बहुत प्रयोक्ता-मित्र नहीं है, वह समय के साथ नहीं चल रही है। क्या इस दिशा में कोई परिवर्तन हो रहा है?
वी एन राय- पिछले 5-6 महीनों में जो परिवर्तन हुए हैं, उसमें दो महत्वपूर्ण योजनाओं को शामिल किया जा रहा है। एक तो मैंने पहले भी बताया कि हिन्दी के महत्वपूर्ण लेखन के 1 लाख पृष्ठ ऑनलाइन किये जायेंगे और हिन्दी के जो समकालीन रचनाकार हैं, लेखक है, उनकी प्रोफाइल, इनके पते वेबसाइट पर डाल रहे हैं ताकि दुनिया भर में फैले इनके प्रसंशक, इनके पाठक, प्रकाशक इनसे संपर्क कर सकें। तकनीक के स्तर पर भी हम परिवर्तन करने की कोशिश कर रहे हैं। हमारा विश्वविद्यालय कोई तकनीकी विश्वविद्यालय तो है नहीं, फिर भी हम सीख करके, दूसरों की सहायता लेकर अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं।
रामजी यादव- भारत में एक बहुत बड़ा क्षेत्र है, जिसमें गैर हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी का विकास हो रहा है, जिससे नये तरह के डायलेक्ट्स बन रहे हैं, भाषा जिस तरह से बन रही है, बाज़ार दूसरी तरह से इन चीज़ों को विकसित कर रहा है। इस पूरी पद्धति में भाषा का विश्वविद्यालय होने की वजह से, विश्वविद्यालय किस रूप से देशज और भदेस को मुख्यधारा का विषय बना सकता है?

शैलेश भारतवासी- यह तो हमारी बोलियों की बात है। दक्षिण भारतीय जो गैर हिन्दी भाषी हैं, हालाँकि हिन्दी को वे सम्पूर्ण भारत की भाषा के तौर पर देखते हैं, लेकिन उनकी शिकायत रहती है कि हिन्दी हमारी राजभाषा है, चलो हम इसे सीख लेते हैं, लेकिन हिन्दीभाषी हमारी भाषा को नहीं सीखते। क्या विश्वविद्यालय कोई इस तरह का कार्यक्रम चलाया रहा है जिससे गैरहिन्दी भाषा को सीखने पर प्रोत्साहन मिले?
वी एन राय- देखिए यह तो सरकारी स्तर पर ही हो सकता है। यह बात आपने बिल्कुल सही कही कि त्रिभाषा कार्यक्रम को लेकर सबसे अधिक बेईमानी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही हुई। हम यह तो चाहते थे कि जो अहिन्दी भाषी क्षेत्र हैं, वहाँ तो शुरू से बच्चे हिन्दी पढ़े, लेकिन जब हमारे यहाँ तीसरी भाषा की बात आई तो हमने संस्कृत को डाल दिया जो किसी भी जनसमूह की भाषा नहीं थी। हमें कोई जीवित भाषा सीखनी चाहिए थी। लेकिन विश्वविद्यालय का तो बहुत सीमित दायरा होता है। हम तो सरकार से बस अपील कर सकते हैं
रणवीर सेना
रणवीर सेना, भारत का उग्रवादी संगठन हैं, किसका मुख्य क्षेत्र बिहार है | यह अन्य सन्गठनो से भिन्न है, क्योकि यह मुख्यतः जाति आधारित सन्गठन है। और इसका मुख्य उद्देश्य बडे जमीन्दारो की जमीनो की रक्षा करना है।
रणवीर सेना की स्थापना 1995 में मध्य बिहार के भोजपुर जिले के गांव बेलाऊर में हुई.दरअसल जिले के किसान भाकपा माले (लिबरेशन ) नामक नक्सली संगठन के अत्याचारों से परेशान थे और किसी विकल्प की तलाश में थे. ऐसे किसानों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर छोटी-छोटी बैठकों के जरिये संगठन की रूपरेखा तैयार की.बेलाऊर के मध्य विद्यालय प्रांगण में एक बड़ी किसान रैली कर रणवीर किसान महसंघ के गठन का ऐलान किया गया.तब खोपिरा के पूर्व मुखिया बरमेश्वर सिंह,बरतियर के कांग्रेसी नेता जनार्दन राय,एकवारी के भोला सिंह,तीर्थकौल के प्रोफेसर देवेन्द्र सिंह,भटौली के युगेश्वर सिंह,बेलाउर के वकील चौधरी ,धनछूहां के कांग्रेसी नेता डॉ.कमलाकांत शर्मा और खण्डौल के मुखिया अवधेश कुमार सिंह ने प्रमुख भूमिका निभाई.इन लोगों ने गांव -गांव जाकर किसानों को माले के अत्याचारों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया.आरंभ में इनके साथ लाईसेंसी हथियार वाले लोग हीं जुटे. फिर अवैध हथियारों का जखीरा भी जमा होने लगा.भोजपुर में वैसे किसान आगे थे जो नक्सली की आर्थिक नाकेबंदी झेल रहे थे.जिस समय रणवीर किसान संघ बना उस वक्त भोजपुर के कई गांवो में भाकपा माले लिबरेशन ने मध्यम और लघु किसानों के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी लगा रखा था. करीब पांच हजार एकड़ जमीन परती पड़ी थी. खेती बारी पर रोक लगा दी गयी थी और मजदूरों को खेतों में काम करने से जबरन रोक दिया जाता था. कई गांवों में फसलें जलायी जा रही थीं और किसानों को शादी-व्याह जैसे समारोह आयोजित करने में दिक्कतें आ रही थी. इन परिस्थितियों ने किसानों को एकजुट होकर प्रतिकार करने के लिए माहौल तैयार किया. रणवीर सेना के गठन की ये जमीनी हकीकत है. भोजपुर में संगठन बनने के बाद पहला नरसंहार हुआ सरथुआं गांव में ,जहां एक साथ पांच मुसहर जाति के लोगों की हत्या कर दी गयी.बाद में तो नरसंहारों का सिलसिला हीं चल पड़ा.बिहार सरकार ने सवर्णो की इस सेना को तत्काल प्रतिबंधित कर दिया.लेकिन हिंसक गतिविधियां जारी रही. प्रतिबंध के बाद रणवीर संग्राम समिति के नाम से इसका हथियारबंद दस्ता विचरण करने लगा. दरअसल भाकपा माले हीं इस संगठन को रणवीर सेना का नाम दे दिया. और इसे सवर्ण सामंतों की बर्बर सेना कहा जाने लगा. एक तरफ भाकपा माले का दस्ता खून बहाता रहा तो प्रतिशोध में रणवीर सेना के हत्यारे खून की होली खेलते रहे.करीब पांच साल तक चली हिंसा-प्रतिहिंसा की लड़ाई के बाद घीरे-घीरे शांति लौटी.लेकिन इस बीच मध्य बिहार के जहानाबाद,अरवल,गया , औरंगाबाद ,रोहतास ,बक्सर और कैमूर जिलों में रणवीर सेना ने प्रभाव बढ़ा लिया. बाद के दिनों में राष्ट्रवादी किसान महासंघ नामक संगठन का निर्माण किया गया. महासंघ ने आरा के रमना मैदान में कई रैलियां की और कुछ गांवों में भी बड़े-बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम हुए. जगदीशपुर के इचरी निवासी राजपूत जाति के किसान रंग बहादुर सिंह को इसका पहला अध्यक्ष बनाया गया.आरा लोकसभा सीट से रंगबहादुर सिंह ने चुनाव भी लड़ा और एक लाख के आसपास वोट पाया. रणवीर सेना के संस्थापक सुप्रीमो बरमेश्वर सिंह उर्फ मुखियाजी पटना में नाटकीय तरीके से पकड़ लिये गये.फिलहाल वे आरा जेल में हैं.जेल में रहते हुए उन्होंने भी लोकसभा का चुनाव लड़ा और डेड़ लाख वोट लाकर अपनी ताकत का एहसास कराया.आज की तारीख में रणवीर सेना की गतिविधियां बंद सी हो गयी हैं.इसके कई कैडर या को मारे गये या जेलों में बंद हैं.
रणवीर सेना की स्थापना 1995 में मध्य बिहार के भोजपुर जिले के गांव बेलाऊर में हुई.दरअसल जिले के किसान भाकपा माले (लिबरेशन ) नामक नक्सली संगठन के अत्याचारों से परेशान थे और किसी विकल्प की तलाश में थे. ऐसे किसानों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर छोटी-छोटी बैठकों के जरिये संगठन की रूपरेखा तैयार की.बेलाऊर के मध्य विद्यालय प्रांगण में एक बड़ी किसान रैली कर रणवीर किसान महसंघ के गठन का ऐलान किया गया.तब खोपिरा के पूर्व मुखिया बरमेश्वर सिंह,बरतियर के कांग्रेसी नेता जनार्दन राय,एकवारी के भोला सिंह,तीर्थकौल के प्रोफेसर देवेन्द्र सिंह,भटौली के युगेश्वर सिंह,बेलाउर के वकील चौधरी ,धनछूहां के कांग्रेसी नेता डॉ.कमलाकांत शर्मा और खण्डौल के मुखिया अवधेश कुमार सिंह ने प्रमुख भूमिका निभाई.इन लोगों ने गांव -गांव जाकर किसानों को माले के अत्याचारों के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया.आरंभ में इनके साथ लाईसेंसी हथियार वाले लोग हीं जुटे. फिर अवैध हथियारों का जखीरा भी जमा होने लगा.भोजपुर में वैसे किसान आगे थे जो नक्सली की आर्थिक नाकेबंदी झेल रहे थे.जिस समय रणवीर किसान संघ बना उस वक्त भोजपुर के कई गांवो में भाकपा माले लिबरेशन ने मध्यम और लघु किसानों के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी लगा रखा था. करीब पांच हजार एकड़ जमीन परती पड़ी थी. खेती बारी पर रोक लगा दी गयी थी और मजदूरों को खेतों में काम करने से जबरन रोक दिया जाता था. कई गांवों में फसलें जलायी जा रही थीं और किसानों को शादी-व्याह जैसे समारोह आयोजित करने में दिक्कतें आ रही थी. इन परिस्थितियों ने किसानों को एकजुट होकर प्रतिकार करने के लिए माहौल तैयार किया. रणवीर सेना के गठन की ये जमीनी हकीकत है. भोजपुर में संगठन बनने के बाद पहला नरसंहार हुआ सरथुआं गांव में ,जहां एक साथ पांच मुसहर जाति के लोगों की हत्या कर दी गयी.बाद में तो नरसंहारों का सिलसिला हीं चल पड़ा.बिहार सरकार ने सवर्णो की इस सेना को तत्काल प्रतिबंधित कर दिया.लेकिन हिंसक गतिविधियां जारी रही. प्रतिबंध के बाद रणवीर संग्राम समिति के नाम से इसका हथियारबंद दस्ता विचरण करने लगा. दरअसल भाकपा माले हीं इस संगठन को रणवीर सेना का नाम दे दिया. और इसे सवर्ण सामंतों की बर्बर सेना कहा जाने लगा. एक तरफ भाकपा माले का दस्ता खून बहाता रहा तो प्रतिशोध में रणवीर सेना के हत्यारे खून की होली खेलते रहे.करीब पांच साल तक चली हिंसा-प्रतिहिंसा की लड़ाई के बाद घीरे-घीरे शांति लौटी.लेकिन इस बीच मध्य बिहार के जहानाबाद,अरवल,गया , औरंगाबाद ,रोहतास ,बक्सर और कैमूर जिलों में रणवीर सेना ने प्रभाव बढ़ा लिया. बाद के दिनों में राष्ट्रवादी किसान महासंघ नामक संगठन का निर्माण किया गया. महासंघ ने आरा के रमना मैदान में कई रैलियां की और कुछ गांवों में भी बड़े-बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम हुए. जगदीशपुर के इचरी निवासी राजपूत जाति के किसान रंग बहादुर सिंह को इसका पहला अध्यक्ष बनाया गया.आरा लोकसभा सीट से रंगबहादुर सिंह ने चुनाव भी लड़ा और एक लाख के आसपास वोट पाया. रणवीर सेना के संस्थापक सुप्रीमो बरमेश्वर सिंह उर्फ मुखियाजी पटना में नाटकीय तरीके से पकड़ लिये गये.फिलहाल वे आरा जेल में हैं.जेल में रहते हुए उन्होंने भी लोकसभा का चुनाव लड़ा और डेड़ लाख वोट लाकर अपनी ताकत का एहसास कराया.आज की तारीख में रणवीर सेना की गतिविधियां बंद सी हो गयी हैं.इसके कई कैडर या को मारे गये या जेलों में बंद हैं.
परशुराम की प्रतिछा.......... रामधारी सिंह "दिनकर"
रामधारी सिंह "दिनकर"
गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।
सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।
फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;
देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !
बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,
वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,
कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,
भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।
गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,
जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,
कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,
चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—
सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !
नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !
झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,
टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;
वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,
आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,
हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,
‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;
साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,
टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।
खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?
अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?
बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?
वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?
जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।
गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।
सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।
फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;
देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !
बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,
वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,
कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,
भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।
गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,
जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,
कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,
चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—
सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !
नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !
झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,
टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;
वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,
आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,
हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,
‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;
साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,
टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।
खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?
अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?
बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?
वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?
जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।
निराशावादी- रामधारी सिंह दिनकर
पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा
धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास
उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।
क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?
तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,
लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?
बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।
- रामधारी सिंह दिनकर
इक्कीस बार पृथ्वी नि:क्षत्रिय
कालांतर में कुछ क्षत्रिरूय स्वेच्छाचारी हो गए। उन्होंने धार्मिक कृत्य करना और ऋषियों के परामर्श के अनुसार चलना छोड़ दिया। ऐसे क्षत्रियों की कई जातियॉं, जिनमें मनुस्मृति के अनुसार चोल, द्रविड़, यवन (ग्रीक), कांबोज ( आधुनिक कंबोडिया निवासी), शक, चीन, किरात ( गिरिवासी) और खस ( असम पहाडियों के निवासी) भी हैं, संसार में ‘वृषल’ ( शूद्र) के समान हो गए। बाकी क्षत्रिय भी प्राण के स्थान पर अत्याचार करने लगे। तब परशुराम का अवतार हुआ। उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी नि:क्षत्रिय की। पर कहते हैं, हर बार कहीं-न-कहीं बीज रह गया। उनसे पुन: वैसे ही लोग उत्पन्न हुए। हर बार परशुराम ने अत्याचारियों को मारकर समाज की रक्षा की।
परशुराम का स्थान है ‘गोमांतक’ (आधुनिक गोवा)। किंवदंती में कहा गया कि परशुराम ने अपने फरसे द्वारा सागर से यह सुंदर वनस्थली प्राप्त की। आज प्राचीनता का स्मरण दिलाते कुछ प्रस्तरयुगीन फलक वहॉं के पुरातत्व संग्रहालय में रखे हैं। परशुराम के अवतारी कार्य के अवशिष्ट चिन्ह क्रूर पुर्तगाली नृशंस अत्याचारियों ने मिटा दिए हैं। उनका स्थान ले लिया है ईसाई अंधविश्वासों, टोटकों और अवशेषों ने, जिनके बचाने की दुहाई मानवता के नाम पर दी जाती है । केवल एक ‘मंगेश’ का मंदिर पुर्तगाली मजहबी उन्माद से उस प्रदेश में बच सका। उनकी दानवता तथा नृशंस अत्याचारों की एक झलक हमें वीर सावरकर लिखित खंड-काव्य ‘गोमांतक’ में मिलती है।
यदि वामन समाज की शिशु अवस्था का प्रतीक है तो परशुराम किशोरावस्था का। इस अवस्था में मन के अंदर अत्याचार के विरूद्ध स्वाभाविक रोष रहता है। शक्ति के मद में जो दुराचारी बने, उनसे परशुराम ने समाज को उबारा। यह सभ्यता की एक प्रक्रिया है। पर इस प्रक्रिया से जब समाज दुर्बल हो गया और क्षात्र शक्ति की पुन: आवश्यकता प्रतीत हुई तब एक बालक के मुख से परशुराम को चुनौती मिली। जनकपुरी में सीता स्वयंवर के अवसर पर लक्ष्मण ने दर्प भरी वाणी में परशुराम से कहा, ‘इहॉं कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरि जाहीं।‘ राम ने परशुराम का तेज हर लिया। मानो कहा कि उनका अवतारी कार्य समाप्त हो गया। एक नए अवतार का उदय हुआ। इस प्रकार परशुराम, किशोरावस्था के समाज की, अत्याचारी के दमन और सभ्य बनाने तथा व्यवस्था लागू करने की प्रक्रिया सहस्त्राब्दियों तक चली।
परशुराम का स्थान है ‘गोमांतक’ (आधुनिक गोवा)। किंवदंती में कहा गया कि परशुराम ने अपने फरसे द्वारा सागर से यह सुंदर वनस्थली प्राप्त की। आज प्राचीनता का स्मरण दिलाते कुछ प्रस्तरयुगीन फलक वहॉं के पुरातत्व संग्रहालय में रखे हैं। परशुराम के अवतारी कार्य के अवशिष्ट चिन्ह क्रूर पुर्तगाली नृशंस अत्याचारियों ने मिटा दिए हैं। उनका स्थान ले लिया है ईसाई अंधविश्वासों, टोटकों और अवशेषों ने, जिनके बचाने की दुहाई मानवता के नाम पर दी जाती है । केवल एक ‘मंगेश’ का मंदिर पुर्तगाली मजहबी उन्माद से उस प्रदेश में बच सका। उनकी दानवता तथा नृशंस अत्याचारों की एक झलक हमें वीर सावरकर लिखित खंड-काव्य ‘गोमांतक’ में मिलती है।
यदि वामन समाज की शिशु अवस्था का प्रतीक है तो परशुराम किशोरावस्था का। इस अवस्था में मन के अंदर अत्याचार के विरूद्ध स्वाभाविक रोष रहता है। शक्ति के मद में जो दुराचारी बने, उनसे परशुराम ने समाज को उबारा। यह सभ्यता की एक प्रक्रिया है। पर इस प्रक्रिया से जब समाज दुर्बल हो गया और क्षात्र शक्ति की पुन: आवश्यकता प्रतीत हुई तब एक बालक के मुख से परशुराम को चुनौती मिली। जनकपुरी में सीता स्वयंवर के अवसर पर लक्ष्मण ने दर्प भरी वाणी में परशुराम से कहा, ‘इहॉं कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरि जाहीं।‘ राम ने परशुराम का तेज हर लिया। मानो कहा कि उनका अवतारी कार्य समाप्त हो गया। एक नए अवतार का उदय हुआ। इस प्रकार परशुराम, किशोरावस्था के समाज की, अत्याचारी के दमन और सभ्य बनाने तथा व्यवस्था लागू करने की प्रक्रिया सहस्त्राब्दियों तक चली।
अजर-अमर परशुराम
अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनुमांश्च विभीषण:
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:।। - श्रीमद्भागवत महापुराण
अश्वत्थामा, हनुमान और विभीषण की भाँति परशुराम भी चिरजीवी हैं। भगवान परशुराम तभी तो राम के काल में भी थे और कृष्ण के काल में भी उनके होने की चर्चा होती है। कल्प के अंत तक वे धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे।
विष्णु के छठे 'आवेश अवतार' परशुराम का जन्म वैशाख शुक्ल पक्ष की तीसरी तिथि अर्थात तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में भृगु ऋषि के कुल में हुआ था। उनकी माता का नाम रेणुका और पिता ऋषि जमदग्नि थे। परशुराम शंकर भगवान के परम भक्त थे। उनका वास्तविक नाम राम था किंतु परशु धारण करने से परशुराम कहा जाने लगे। भगवान शिव से उन्होंने एक अमोघास्त्र प्राप्त किया था जो परशु नाम से प्रसिद्ध है।
शिक्षा-दीक्षा-शक्ति : परशुराम योग, वेद और नीति में पारंगत थे। ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी वे पारंगत थे। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की। कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
सहस्रबाहु से युद्ध : परशुराम राम के समय से हैं। उस काल में हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार था। राजा सहस्रबाहु अर्जुन आश्रमों के ऋषियों को सताया करता था। परशुराम ने उक्त राजा सहस्रबाहु का महिष्मती में वध कर ऋषियों को भयमुक्त किया।
सहस्रबाहु के पुत्रों ने कामधेनु गाय को लेने तथा परशुराम से बदला लेने की भावना से परशुराम के पिता का वध कर दिया। जब इस बात का परशुराम को पता चला तो क्रोधवश उन्होंने हैहयवंशीय क्षत्रियों की वंश-बेल का 21 बार विनाश किया।
पितृभक्त परशुराम : पुराणों में उल्लेख मिलता है कि परशुराम की माता रेणुका से अनजाने में कोई अपराध हो गया था। पिता जमदग्नि उक्त अपराध से अत्यंत क्रोधित हुए तथा अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि रेणुका का सिर काट डालो। स्नेहवश पुत्र ऐसा न कर सके लेकिन परशुराम ने माता तथा भाइयों का सिर पिताश्री की आज्ञानुसार काट डाला।
पिता इस पितृभक्ति से प्रसन्न हुए। उन्होंने परशुराम से वर माँगने को कहा। परशुराम ने कहा कि पिताश्री मेरी माता तथा भाई पुनः जीवित हो उठें तथा उन्हें मेरे द्वारा वध किए जाने की स्मृति न रहे और मैं निष्पाप होऊँ- मैं ऐसा वर चाहता हूँ। पिता जमदग्नि ने तथास्तु कहा।
परशुराम की लीला : जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया तो, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दिया, जिससे गणेश का एक दाँत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया। कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया। असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं।
परशुराम का धनुष : पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी। और अंतत: वह उसी पर्वत पर कल्पांत तक के लिए तपस्यारत होने के लिए चले गए थे। कुछ समय पूर्व भिलाई में स्थित इस पर्वत पर से पुरातत्व विभाग को नब्बे किलो वजन का एक धनुष मिला है इसलिए माना जा रहा है कि इतना वजनी धनुष शायद परशुराम का ही हो।
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनुमांश्च विभीषण:
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:।। - श्रीमद्भागवत महापुराण
अश्वत्थामा, हनुमान और विभीषण की भाँति परशुराम भी चिरजीवी हैं। भगवान परशुराम तभी तो राम के काल में भी थे और कृष्ण के काल में भी उनके होने की चर्चा होती है। कल्प के अंत तक वे धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे।
विष्णु के छठे 'आवेश अवतार' परशुराम का जन्म वैशाख शुक्ल पक्ष की तीसरी तिथि अर्थात तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में भृगु ऋषि के कुल में हुआ था। उनकी माता का नाम रेणुका और पिता ऋषि जमदग्नि थे। परशुराम शंकर भगवान के परम भक्त थे। उनका वास्तविक नाम राम था किंतु परशु धारण करने से परशुराम कहा जाने लगे। भगवान शिव से उन्होंने एक अमोघास्त्र प्राप्त किया था जो परशु नाम से प्रसिद्ध है।
शिक्षा-दीक्षा-शक्ति : परशुराम योग, वेद और नीति में पारंगत थे। ब्रह्मास्त्र समेत विभिन्न दिव्यास्त्रों के संचालन में भी वे पारंगत थे। उन्होंने महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में शिक्षा प्राप्त की। कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें कल्प के अंत तक तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
सहस्रबाहु से युद्ध : परशुराम राम के समय से हैं। उस काल में हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार था। राजा सहस्रबाहु अर्जुन आश्रमों के ऋषियों को सताया करता था। परशुराम ने उक्त राजा सहस्रबाहु का महिष्मती में वध कर ऋषियों को भयमुक्त किया।
सहस्रबाहु के पुत्रों ने कामधेनु गाय को लेने तथा परशुराम से बदला लेने की भावना से परशुराम के पिता का वध कर दिया। जब इस बात का परशुराम को पता चला तो क्रोधवश उन्होंने हैहयवंशीय क्षत्रियों की वंश-बेल का 21 बार विनाश किया।
पितृभक्त परशुराम : पुराणों में उल्लेख मिलता है कि परशुराम की माता रेणुका से अनजाने में कोई अपराध हो गया था। पिता जमदग्नि उक्त अपराध से अत्यंत क्रोधित हुए तथा अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि रेणुका का सिर काट डालो। स्नेहवश पुत्र ऐसा न कर सके लेकिन परशुराम ने माता तथा भाइयों का सिर पिताश्री की आज्ञानुसार काट डाला।
पिता इस पितृभक्ति से प्रसन्न हुए। उन्होंने परशुराम से वर माँगने को कहा। परशुराम ने कहा कि पिताश्री मेरी माता तथा भाई पुनः जीवित हो उठें तथा उन्हें मेरे द्वारा वध किए जाने की स्मृति न रहे और मैं निष्पाप होऊँ- मैं ऐसा वर चाहता हूँ। पिता जमदग्नि ने तथास्तु कहा।
परशुराम की लीला : जब एक बार गणेशजी ने परशुराम को शिव दर्शन से रोक लिया तो, रुष्ट परशुराम ने उन पर परशु प्रहार कर दिया, जिससे गणेश का एक दाँत नष्ट हो गया और वे एकदंत कहलाए। जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया। कौरव-सभा में कृष्ण का समर्थन किया। असत्य वाचन करने के दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। इस तरह परशुराम के अनेक किस्से हैं।
परशुराम का धनुष : पौराणिक कथा में वर्णित है कि महेंद्रगिरि पर्वत भगवान परशुराम की तप की जगह थी। और अंतत: वह उसी पर्वत पर कल्पांत तक के लिए तपस्यारत होने के लिए चले गए थे। कुछ समय पूर्व भिलाई में स्थित इस पर्वत पर से पुरातत्व विभाग को नब्बे किलो वजन का एक धनुष मिला है इसलिए माना जा रहा है कि इतना वजनी धनुष शायद परशुराम का ही हो।
रोहिणी नक्षत्र में जन्मे थे परशुराम
रोहिणी नक्षत्र में जन्मे थे परशुराम
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उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर जनपद से लगभग 30 किमी दूर शाहजहाँपुर- फर्रूखाबाद रोड़ पर तहसील जलालाबाद में भगवान परशुराम की जन्मस्थली बताई जाती है। इस स्थान को हजारों वर्षों से लोग खेड़ा परशुरामपुरी कहते आए हैं। मुगलकाल में रूहेला सरदार नजीब खाँ के पुत्र रहमत खॉ ने इसका नाम बदलकर अपने मझले पुत्र जलालुद्दीन के नाम पर जलालाबाद कर दिया था। किन्तु अनेक स्थानों पर अभी भी परशुरामपुरी लिखा हुआ है। लोगों की दृढ़ धारणा है कि परशुराम यहीं पर जन्मे थे। स्थानीय कांग्रेसी सांसद एवं वर्तमान में केन्द्रीय राज्यमंत्री जितिन प्रसाद ने बाकायदा केन्द्रीय पर्यटन मंत्री को पत्र लिखकर इस मंदिर को पर्यटन स्थल घोषित करने की माँग की है।
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स्थानीय लोगों की राज्य सरकार से माँग है कि परशुराम जन्मस्थली के इस परशुराम मंदिर को पर्यटन स्थल घोषित कर इसका विकास किया जाए। इधर उत्तर प्रदेश की राजनीति में भगवान परशुराम महत्वपूर्ण हो चले हैं। परशुराम ब्राह्मणों के स्वाभिमान और गौरव के प्रतीक बन गए हैं। सोशल इंजीनियरिंग के चलते सत्ता हथियाने के लिए ब्राह्मणों का सहयोग पाने के लिए सभी दल उनको लुभा रहे हैं।
ब्राह्मणों ने भी इधर तेजी से भगवान परशुराम को भगवान का दर्जा दे उनकी पूजा-आराधना शुरू कर दी है और इसी के चलते वे अपने आराध्य देव भगवान परशुराम की जन्मस्थली जलालाबाद में स्थित परशुराम के मंदिर का जीर्णोद्धार कर विशाल मंदिर बनाने का संकल्प ले रहे हैं। इसी बहाने ब्राह्मणों ने अपने समाज को एक रखने की ठानी है।
उत्तरप्रदेश के शाहजहाँपुर जनपद से लगभग 30 किमी दूर शाहजहाँपुर- फर्रूखाबाद रोड़ पर तहसील जलालाबाद में भगवान परशुराम की जन्मस्थली बताई जाती है। इस स्थान को हजारों वर्षों से लोग खेड़ा परशुरामपुरी कहते आए हैं।
गत एक फरवरी को ब्राह्मण समाज एकता संघर्ष समिति के द्वारा भगवान परशुराम की जन्मस्थली के जलालाबाद में स्थित परशुराम मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए भूमि पूजन व शिलादान का आयोजन किया गया। इस आयोजन में नैमिष व्यास पीठाधीश्वर जगदाचार्य श्री स्वामी उपेन्द्रानन्द सरस्वती जी महाराज तथा ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य श्रीमद् स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती जी महाराज पधारे।
जिस स्थान पर आज परशुरामपुरी स्थित है त्रेतायुग में वह क्षेत्र कान्यकुन्ज राज्य में था। रूहेला सरदार नजीब खॉ के पुत्र हाफिज खाँ ने इस क्षेत्र में एक किला बनवाया था। आज उसी किले के अवशेष पर तहसील का भवन बना हुआ है। उसने अपने मझले पुत्र जलालुद्दीन का विवाह वहाँ आकर बस जाने वाले अफगान कबीले में किया था और यह इलाका अपनी पुत्रवधू को मेहर मे दिया था तभी से इस नगर का नाम परशुरामपुरी से बदलकर जलालाबाद रखा गया था।
परशुरामपुरी जलालाबाद में भगवान परशुराम का अति प्राचीन मंदिर है। मंदिर के मध्य में शिवलिंग है। सामने भगवान परशुराम की प्राचीन मूर्ति है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भगवान परशुराम के हाथों से यहाँ शिवलिंग की स्थापना की गई थी जिस पर बाद में भक्तों ने मंदिर का निर्माण कराया होगा।
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परशुरामपुरी में मंदिर लगभग 20 फुट ऊँचे स्थान पर बना है। मंदिर की ऊँचाई इसकी अति प्राचीनता का प्रमाण है। यवनों के द्वारा परशुराम मंदिर अनेक बार तोड़ा गया तथा परशुराम के भक्तों द्वारा पुनः उसका जीर्णोद्धार कराया गया। जीर्णोद्धार के समय मलबे के नीचे से परशुराम से संबंधित अनेक प्राचीन वस्तुएँ उपलब्ध हुईं। एक बार मंदिर के मलबे के नीचे से लगभग 8 फीट ऊँचा और ढाई फीट फलक का परशु निकला था। प्राचीन परशु अब नहीं है किन्तु उसी आकार का परशु मंदिर पर लगा है जो आज भी मंदिर द्वार के दाईं ओर लगा है।
कहा जाता है कि सतयुग के अन्त में परशुराम जी का अवतरण यही हुआ है बैसाख शुक्ल पक्ष अक्षय तृतीया बुधवार रोहिणी नक्षत्र सायंकाल तुला लग्न में परशुराम का इसी क्षेत्र में जन्म हुआ था। उनके बाबा ऋचीक मुनि की तपःस्थली यही थी, पिता जमदग्नि का जन्म भी यहीं होना बताया जाता है। जमदग्नि के नाना राजा गाधि का राज्य भी यही था उनका किला आज भी प्रसिद्ध है। परशुराम की माता रेणुका दक्षिण देश की राजकुमारी थीं।
आज भी परशुराम मंदिर के पश्चिमी भाग में दाक्षायणी या ढकियाइन का मन्दिर है जो रेणुका के रहने का स्थान बताया जाता है। परशुराम अपने पिता के लिए रामगंगा लाए थे उसका अंश आज भी जिगदिनी नाम की झील जमदग्नि का स्मरण दिलाती है।
त्रेतायुग में आतंकी राजाओं का परशुराम ने विनाश किया था और तपस्वी ऋषि-मुनियों की सुरक्षा की तथा ताल खुदवाए। परशुराम द्वारा खोदे गए ताल प्रायः धनुषाकार हैं तथा रामताल के नाम से प्रसिद्ध है। परशुराम मंदिर के सम्मुख आज भी रामताल है।
जनश्रुति और प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि भगवान परशुराम की जन्मभूमि यही रही होगी। यहाँ से पश्चिम दिशा में कटका-कटकिया आज भी कंटकपुरी की याद दिलाते हैं। जहाँ परशुराम ने सहस्रबाहु की सेना और उनके पुत्रों को अपने फरसे से काटा था। उसमें हयहयवंशी आतंकी क्षत्रिय पश्चिमी जंगलों में निवास करते थे।
ब्राह्मणों को कष्ट पहुँचाने वाले दस्यु रूप में रहते थे। परशुराम ने उन्हें नष्ट कर उनके स्थानों को खंडहर बना दिया जो आज भी खंडहर के नाम से प्रसिद्ध है। जनश्रुति के अनुसार खंडहर वाउनी कहलाती है। इसके अलावा दिउरा, जमुनिया, उबरिया आदि स्थान भी परशुरामजी से संबंधित बताए जाते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि सभी पीठों के शंकराचार्य इस मंदिर पर आ चुके है। करपात्री जी महाराज अपने पर्यटन स्थलों में इसे प्रधानता देते थे।
परशुराम के मंदिर में सभी श्रद्धालुओं की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। नगर के नव विवाहित वर-वधू सर्वप्रथम इसी मंदिर में आशीर्वाद लेने आते हैं। दूर-दूर से मुण्डन, अन्नप्राशन, करधनी धारण आदि संस्कार कराने मंदिर पर ही लोग आते है। वर्तमान में इस मंदिर के महंत सत्यदेव पाण्डेय है जिनके कार्यकाल में मंदिर का विकास हुआ नये भवन बने, नवदुर्गा की स्थापना और चौबीस अवतारों की प्रतिष्ठा की गई।
भारतीय वांगमय में उसके रचयिताओं ने अपने तथा अपने ग्रंथों के ऐतिहासिक नायकों की जन्मतिथि और जन्मस्थान का कोई स्पष्ट और विस्तार से उल्लेख नहीं किया है। ऋषि मुनियों के जन्मस्थान और निवास स्थान स्थित दूसरी है। बहुत कम ऋषि मुनि ऐसे थे जिनकी एक या दो पीढियाँ किसी निश्चित स्थान पर निवास करती थी। अधिकांश ऋषि मुनि मानव कल्याण के लिए उपदेश प्रचार के लिए जगह-जगह भ्रमण करते थे और आवश्यकतानुसार आश्रम बनाकर निवास करते थे। इसीलिए वाल्मीकि, विश्वामित्र, अगस्त आदि ऋषियों के आश्रम देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में पाए जाते हैं।
भगवान परशुराम के पूर्वज भार्गव ऋषिगण भृगु, शुक्राचार्य, च्यवन, दधीचि, मार्कण्डेय आदि भ्रमणशील थे। छठे अवतार परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम देश के कोने-कोने में मिलते हैं। महर्षि जमदग्नि और परशुराम के अनेक प्रमुख स्थानों को भगवान परशुराम के जन्मस्थान से जोड़ा जाता है।
भगवान परशुराम के जन्मस्थान को लेकर कई स्थानों पर दावा किया जाता है। जिनमें उत्तर प्रदेश के जनपद गाजीपुर में जमनिया, जनपद मेरठ के पुरा महादेव परशुरामेश्वर, वाराणसी जनपद के भार्गवपुर व जलालाबाद शाहजहाँपुर, राजस्थान के जनपद चित्तौड़ स्थित मातृकुंडिया, हिमाचल प्रदेश के जनपद ददाहु के रेणुका तीर्थ तथा मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर स्थित जानापाव को परशुराम जन्मस्थली होने का दावा किया जाता है।
फिलहाल उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण शाहजहाँपुर जनपद के जलालाबाद स्थित परशुराम मंदिर को ही भगवान परशुराम का जन्मस्थली घोषित करने के लिए सामाजिक व राजनीतिक प्रयास कर रहे हैं
षत्रियों के संहार करने की शपथ
पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना।
फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। "इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है।
इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा। इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली।
"समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम। एक बार रेणुका सरितास्नान के लिये गई। दैवयोग से चित्ररथ भी वहाँ पर जल-क्रीड़ा कर रहा था। चित्ररथ को देख कर रेणुका का चित्त चंचल हो उठा। इधर जमदग्नि को अपने दिव्य ज्ञान से इस बात का पता चल गया। इससे क्रोधित होकर उन्होंने बारी-बारी से अपने पुत्रों को अपनी माँ का वध कर देने की आज्ञा दी।
रुक्मवान, सुखेण, वसु और विश्वानस ने माता के मोहवश अपने पिता की आज्ञा नहीं मानी, किन्तु परशुराम ने पिता की आज्ञा मानते हुये अपनी माँ का सिर काट डाला। अपनी आज्ञा की अवहेलना से क्रोधित होकर जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों को जड़ हो जाने का शाप दे दिया और परशुराम से प्रसन्न होकर वर माँगने के लिये कहा।
इस पर परशुराम बोले कि हे पिताजी! मेरी माता जीवित हो जाये और उन्हें अपने मरने की घटना का स्मरण न रहे। परशुराम जी ने यह वर भी माँगा कि मेरे अन्य चारों भाई भी पुनः चेतन हो जायें और मैं युद्ध में किसी से परास्त न होता हुआ दीर्घजीवी रहूँ। जमदग्नि जी ने परशुराम को उनके माँगे वर दे दिये। "इस घटना के कुछ काल पश्चात् एक दिन जमदग्नि ऋषि के आश्रम में कार्त्तवीर्य अर्जुन आये।
जमदग्नि मुनि ने कामधेनु गौ की सहायता से कार्त्तवीर्य अर्जुन का बहुत आदर सत्कार किया। कामधेनु गौ की विशेषतायें देखकर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने जमदग्नि से कामधेनु गौ की माँग की किन्तु जमदग्नि ने उन्हें कामधेनु गौ को देना स्वीकार नहीं किया। इस पर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने क्रोध में आकर जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया और कामधेनु गौ को अपने साथ ले जाने लगा। किन्तु कामधेनु गौ तत्काल कार्त्तवीर्य अर्जुन के हाथ से छूट कर स्वर्ग चली गई और कार्त्तवीर्य अर्जुन को बिना कामधेनु गौ के वापस लौटना पड़ा। "उपरोक्त घटना के समय वहाँ पर परशुराम उपस्थित नहीं थे।
जब परशुराम वहाँ आये तो उनकी माता छाती पीट-पीट कर विलाप कर रही थीं। अपने पिता के आश्रम की दुर्दशा देखकर और अपनी माता के दुःख भरे विलाप सुन कर परशुराम जी ने इस पृथ्वी पर से क्षत्रियों के संहार करने की शपथ ले ली। पिता का अन्तिम संस्कार करने के पश्चात् परशुराम ने कार्त्तवीर्य अर्जुन से युद्ध करके उसका वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया और उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र में पाँच सरोवर भर दिये। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया। अब परशुराम ब्राह्मणों को सारी पृथ्वी का दान कर महेन्द्र पर्वत पर तप करने हेतु चले आये हैं
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