मंगलवार, 29 मार्च 2011

अजनबी आवाज़ें / सुभाष राय

शहर में घुस आए हैं
कुछ अजनबी लोग

हलचल है चौराहों पर
कानाफूसी चल रही है
दुकानों पर, दालानों में
चौपालों पर, जगह-जगह

घरों की खिड़कियाँ
दिन में भी बंद
रहती हैं आजकल
दरवाज़ों पर
ताले लटक जाते हैं
या भीतर से साँकल
चढ़ी होती है
बिजली कि घंटियों के तार
खोल देते हैं लोग
ताकि आने वाला आवाज़ दे
पहचाना जा सके
अजनबी आवाज़ों पर नहीं
खुलते हैं दरवाज़े

पार्कों में सन्नाटा है
बच्चे भी नहीं आते
अब वहाँ खेलने
पेड़ अकेले पड़ गए हैं
दिन भर ठकुआए
खड़े रहते हैं
शाम को भी अब
उनकी जड़ों के पास
चौपाल नहीं जमती

लोगो ने फूलों को
पानी देना बंद कर दिया है
उनमें कलियाँ आती हैं
पर खिल नहीं पातीं
न जाने कब, कौन
आकर उन्हें मसल जाता है
तितलियाँ दिखती ही नहीं
उनके टूटे हुए पंख
उड़ते रहते हैं इधर-उधर
डालियों पर लटके
शहद के खतोने
सूख गए हैं
जा चुकीं हैं
मक्खियाँ कहीं और

नदी के पानी में
अजीब सी थरथराहट है
वह परेशान है
अब उसके किनारे नहीं आती
झुंड की झुंड गायें
अपनी प्यास बुझाने
धूप से व्याकुल
चरवाहे नहीं आते
तट पर पानी पीने

कोई रोज़ आधी रात बाद
चुपके से आता है और
लाठियाँ पीटता है पानी पर
छुरे पर धार लगाता है
तलवारें तेज़ करता है
पास पड़ीं खोपड़ियाँ
टकराता, बजाता है

बच्चे छुट्टियाँ नहीं मना पाते
डरे हुए माँ-बाप की
सलाहें बंद कमरों में
कैद कर देती हैं उन्हें अकेले
स्कूल भी जाते हैं डरे-सहमे
जेल जैसा लगता है स्कूल
मध्यांतर में भी
बाहर नहीं निकलते
तरसते हैं आइस्क्रीम के लिए

सुबह-सुबह लोग
टूट पड़ते हैं अख़बारों पर
जानना चाहते हैं
क्या हुआ रात में
कोई घर तो नहीं लुटा
कोई हत्यारों के हाथ
मारा तो नहीं गया
कोई बच्चा तो नहीं
ग़ायब हुआ

अफ़वाहें उड़ती हैं
गर्म आँधियों की तरह
जो नहीं हुआ होता
वह भी सरसराता रहता है
कानाफूसियो में
विश्वास नहीं होता
मगर अविश्वास भी कैसे हो

गला कटा धड़ मिला है
रामगंज की पुलिया पर
दाँतों के निशान हैं
युवती के जिस्म पर
मोतीपुर के कुछ मकानों पर
लाल हथेलियों की
छाप देखी गई
बिल्कुल वैसी ही जैसी
लुटने के कुछ ही दिन पहले
सदर के कुछ घरों पर
देखी गई थी
मज़ार के पास
दो अलग-अलग
हाथों के कटे पंजे मिले हैं
एक पर राम गुदा हुआ है
दूसरे पर रहीम

लोग बेहद डरे हुए हैं
किचेन में काम करती
औरत को दिखती हैं
छायाएँ बाहर टहलती हुई
रात को छत पर
किसी के चलने की
ठक-ठक सुनाई पड़ती है
बाहर सड़क पर
कभी-कभी बहुत तेज़
भूँकते हैं कुत्ते
हवा से खड़कती हैं कुंडियाँ
अधजगी आँखें फैल जाती हैं
एक पल के लिए
इग्जास्ट फैन के पीछे
अपने घोंसले में
सोया कबूतर
फड़फड़ाता है पंख
और डरा देता है
लरजती शाम
काँपती सुबह
झनझनाती रात
इसी तरह दिन गुज़र रहा है
आदमी डर रहा है
मर रहा है

3 टिप्‍पणियां:

  1. भाई सुभाष राय जी बहुत ही सुंदर कविता पढ़ने को मिली बधाई |

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  2. भाई पुनीत जी यह अपने ढंग का अनोखा ब्लॉग है आपको बधाई और शुभकामनाएं |

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