मंगलवार, 29 मार्च 2011

सुभाष राय का आलेख : वक्त की आवाज हैं शब्द


subhash rai
साहित्य-चिंतन
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वक्त की आवाज हैं शब्द
डा. सुभाष राय 
अगर आप किसी पत्रकार, लेखक या  साहित्यकार से पूछें कि वह  आखिर  लिखता  क्यों हैं? उसे लिखने का  रोग है या मजबूरी या किसी खास किस्म की जरूरत या कुछ और? इससे उसे क्या हासिल होता है? तो वह  क्या जवाब देगा ? कोई कहेगा वह लिखकर प्रसन्नता का अनुभव करता है क्योकि बहुत कुछ जो वह चाहते हुए भी कह नहीं पाता है, कागज पर उतार देता है. यह विरेचन उसे आनंदित करता है. इसे स्वान्तः सुखाय  लेखन भी कहा जा सकता है. कोई कहेगा कि  वह परिवर्तन के लिए लिखता है. शब्दों में बड़ी शक्ति होती है और उनका  सधा हुआ प्रयोग जर्जर और जीर्ण को ध्वस्त कर  नए निर्माण की सम्भावना पैदा कर सकता  है. और भी तर्क हो सकते हैं पर  सच यह है कि जो लोग युगीन विषमताओं के खिलाफ चुप नहीं रह सकते,  तटस्थ नहीं रह सकते और तलवार भी नहीं उठा सकते, वे लिखते हैं. जो अपने समय के भीतर खड़े होकर उससे आमने-सामने  जबान लड़ाने का हौसला रखते हैं, उनका हाथ युग की नब्ज पर होता है. और केवल वही सार्थक लिख पाते हैं.  अगर आप की रचना में अपने वक्त की आवाज है तो वह अपने-आप बोलेगी, बड़ी नजर आयेगी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप के पास अपने  समय को और उसकी जरूरत को समझने की दृष्टि है या नहीं।
परिवर्तन को लक्ष्य करके जो  भी लिखा जाय, वह साहित्य ही हो, कोई जरूरी नहीं. एक पत्रकार भी लिखता है. वह अपनी कलम तात्कालिक महत्त्व के  मसाइल पर उठाता है. सामाजिक, राजनीतिक जड़ता के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ, लोगों की तटस्थता के खिलाफ, सामाजिक विषमताओं के खिलाफ, सरकारी उदासीनता के खिलाफ और जो कुछ भी सड़ता, बजबजाता दिखायी पड़ता है, उसके खिलाफ। ऐसा लेखन पत्रकारीय भी हो सकता है और साहित्यिक भी। ज्यादातर स्वतंत्र और चेतन पत्रकार परिवर्तन के लिए लिखते हैं। यह अलग बात है कि उनका लेखन नियोजित और संस्थागत पत्रकारिता से निकलती तमाम परस्परविरोधी और अलक्षित आवाजों के बीच बहुत असर नहीं दिखा पा रहा है। पूंजी से नियंत्रित मीडिया ने जिस व्यावसायिक लेखन को प्रश्रय और विस्तार दिया है, उसकी तो चर्चा भी बेमानी है। वह तो सिर्फ धन कमाने का जरिया है। पत्रकारों को इसलिए लिखना होता है क्योंकि उन्हें इसके लिए वेतन मिलता है। एक साहित्यकार खबरों में अपने युग को ढूढ़ता है और यही बोध उसे साधारण पत्रकारीय फलक से ऊपर ले जाता है।  उच्च कोटि की रचना लिखी या कही नहीं जाती। वह सिर्फ होती है, भीतर चेतन के सबसे ऊर्जस्वित क्षेत्र में एक विस्फोट की तरह पैदा होती है और विद्युत की तरंगों की तरह विस्तार ग्रहण करती है। जिसके भीतर से रचना जन्म लेती है, उसे पता ही नहीं चलता। भाव की आत्यंतिक उत्कटता और विचार का सघन प्रवाह उसे आगे बढ़ाता है और एक छोर से दूसरे छोर तक नदी की धार की तरह बहा ले जाता है।
जैसे बादल का बरसना कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं होती। गर्मी सागर की सतह से वाष्प पैदा करती है। यह वाष्प ऊपर उठती है। सागर की इतनी विशाल सतह से उठती वाष्प उमड़ती-घुमड़ती हुई हवा के साथ बहती चली जाती है। दूर खड़ा एक पहाड़ उसे रोक देता है, ऊपर की ठंड उसे पानी में बदल देती है। हम बारिश देखते हैं तो सागर तक कहां पहुंचते? इसी तरह मनुष्य के भीतर विशाल आकाश में बाहर के समाज, देश और परिस्थिति की विडंबनाओं से पैदा हुए विचार और भाव के बादल सघन से सघनतर होते जाते हैं। समय का कोई क्षण उसमें विस्फोट पैदा कर देता है, उसे पिघला देता है और अतिचेतन से रचना बरसने लगती है। रचनाकार के सामर्थ्य से उसके भीतर स्थित कला स्वयं ही उसे धारण लेती है। बरसते मेघ का पानी जैसे घट में ठहर जाता है, वैसे ही रचना रचनाकार की मेधा में बुनी हुई संश्लिष्ट कला में उतरकर ठहर जाती है। यह साधारण आदमी के वश की बात नहीं। जो रचता है, उसे भी नहीं मालूम होता कि रचना आखिर कैसे हुई। इसलिए कहना पड़ेगा कि लिखना तो नियोजित कारोबार है लेकिन रचना स्वत:स्फूर्त कलात्मक स्फोट। वह रचनाकार की संवेदना, उसकी दृष्टि और उसके हेतु में स्वयं ही लिपटकर बाहर आती है। श्रेष्ठ रचना स्वयं ही स्वयं को रचती है, तभी तो वह केवल होती है।
रचनात्मक लेखन की विधाओं में कविता को श्रेष्ठतम दर्जा हासिल है. कविता क्या है? अक्सर यह सवाल किया जाता है। कोई नहीं जानता कि पहली कविता ने कब जन्म लिया, किसने सबसे पहले शब्द को कविता का रूप दिया लेकिन इतना कोई भी कह सकता है कि कविता ने दुख से ही जन्म लिया होगा। उमड़ कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान। दुनिया भर के विद्वानों, कवियों, आलोचकों ने कविता को परिभाषाओं में बांधने का काम किया। भारतीय मेधा ने स्वीकार किया कि रस ही काव्य है। जिसे पढ़ने या सुनने से आदमी के भीतर बहुत गहरे रस की अनुभूति हो। उसे महसूस हो कि जो बात कही गयी लगती है, वह उतनी ही नहीं है। वह जितना डूबे, उतना ही आनंद से सराबोर होता चला जाय। यह आनंद अभिव्यक्ति की सचाई से पैदा होता है। सुनने वाला या पढ़ने वाला वैसी ही अनुभूति अपने भीतर ढूंढ लेता है और यह अनुभूति की साम्यता ही उसे आह्लादित करती है। गहरी पीड़ा की अभिव्यक्ति से एकाकार होते ही आंखों में आंसू आ जाते हैं। इस तरह कविता व्यक्ति को अपने कथ्य के केंद्र की ओर खींच ले जाती है। वह कवि की तरह ही सोचने लगता है, अनुभव करने लगता है। अगर कोई कविता ऐसा नहीं कर पाती तो उसके कविता होने पर संदेह स्वाभाविक है।
पश्चिमी विद्वानों ने भी कविता को समझने-समझाने की कोशिश की। वर्ड्सवर्थ ने कहा कि कविता गहरे भावों का आकुलता भरा उफनता प्रवाह है। एमिली डिकिंसन ने कहा कि जब मैं कोई पुस्तक पढ़ती  हूं और वह मुझे इतना शीतल कर देती है कि कोई भी आग गरम न कर पाये, मैं समझ जाती  हूं कि वह कविता के अलावा और कुछ नहीं हो सकती है। तमाम परिभाषाओं के बावजूद समय के साथ कविता अपने रूप बदलती रहती है और इसीलिए वह किसी भी परिभाषा में बंधने से इंकार करती रही है। फिर भी उसे समझने के लिए हमेशा ही नयी-नयी परिभाषाएँ गढ़ने की कोशिशें होती रहती हैं। पूरी दुनिया में कविता के आंदोलन चलते रहे हैं। अलग-अलग दौर में कविता को अलग-अलग तरीके से समझने का प्रयास किया गया। पारंपरिक अनुशासन को आवश्यक मानने वाले लोगों का कहना है कि कविता में गेय तत्व होना ही चाहिए अन्यथा गद्य और काव्य में अंतर क्या रह जायेगा। परंतु इस नाते क्या जो भी गेय हो, उसे कविता कह देना समीचीन होगा? कविता की और भी जरूरतें होती हैं और उनके होने पर ही वह कविता होगी।
कवि अपनी बात सीधे नहीं कहता। वह उसे कलात्मक संक्षिप्ति के साथ व्यक्त करता है। इस कला में शब्द की व्यंजना, बिम्ब, प्रतीक, ध्वन्यार्थ आदि आते हैं। यही कविता को सीधे गद्य से अलग करते हैं। गेयता भी काव्य कला का एक तत्व है, लेकिन एकमात्र या अंतिम तत्व नहीं। और यह भी जरूरी नहीं कि किसी कविता को कविता तभी माना जायेगा, जब उसमें सारे तत्व समाहित हों। इसी अर्थ में गेयता न भी हो और बाकी तत्व हों तो भी कविता बन सकती है। कविता की सबसे बड़ी ताकत उसमें पढ़ने या सुनने वाले की उपस्थिति है, आम आदमी की उपस्थिति है। यह काव्य का प्रमुख और अनिवार्य तत्व है। अगर कोई कविता सारे अनुशासन से लैस है, अलंकार, छन्द, प्रतीक, बिम्ब और उत्तम भाषा-शैली से भी संपन्न है लेकिन उसका कथ्य लोगों की संवेदना को झकझोरता नहीं, उनमें गुस्सा, भय, क्रोध या प्यार नहीं पैदा नहीं करता तो उसे कविता कहने की कोई मजबूरी नहीं है। इसीलिए कविता करना बहुत कठिन और विरल बात है। कविता प्रयास और कल्पना से नहीं बनती। कवि जन्म लेता है, पैदा होता है। कोई भी कवि बन जाय, सहज संभाव्य नहीं है। शब्द जिसके हाथों में खेल सकते हों, अर्थ जिसके भाव के  अनुगामी हो, ऐसे लोगों को प्रकृति अलग से ही रचती है। समय उन्हीं के चरण चूमता है, जो समय के आगे चल सकते हैं, सच्चे सपनों को पहचान सकते हैं और यह काम केवल कवि ही कर सकता है।
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