शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार-4

जिनकी जीविका आजकल केवल उसी विद्या पर निर्भर हैं वे ही जब वास्तविक संस्कृत ज्ञान से शून्यप्राय हो रहे हैं; शीघ्रबोधा, मुहूर्तचिन्तामणि, कुछ व्याकरण और सत्यनारायण तथा दुर्गापाठ ही अनाप-सनाप घोख-घाख कर काम चला रहे और अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं, जो कि सभी के नेत्रों के सन्मुख ही हैं। तो फिर जिनको उसका पढ़ना जीविका के लिए नहीं, वरन् पारलौकिक कार्यों के ही लिए हैं और साथ ही बबुआनी जैसी पिशाचिनी ग्रसे हुए हैं तथा निरक्षर भट्टाचार्य पुरोहितजी एवं गुरुजी भी, यह विचार कर कि यदि हमारे यजमान या शिष्य बाबू साहब चार अक्षर पढ़ जायेगे तो फिर हमारे बैल न रह जायेगे और हमारी हर बातों में नुक्ताचीनी करके हमारी फजीहत करते रहेंगे, जिससे हम मनमाने लूट न सकेंगे इत्यादि, यही दिन-रात ठसने तथा पोथों में लिख तक डालते हैं कि आप तो बाबू हैं, आपको केवल साधु ब्राह्मणों की सेवा करना तथा अंग्रेजी-फारसी आदि पढ़ना चाहिए। संस्कृत तो भिखमंगी विद्या हैं। इसे पढ़कर आप क्या करेंगे? क्या आपको दुर्गा और सत्यनारायण बाँचने, मुहूर्त देखना या कथा बाँचनी और पत्रो उलटने हैं? इत्यादि; उनके लिए इसका पढ़ना ही आश्चर्य हैं। जब पुरोहित एवं गुरुजी ही सन्ध्या; गायत्री के ब्याज से केवल झूठे नाक दबाना और चिड़ियाँ उड़ाना ही जानते हैं तो बाबू साहब क्यों कर जानने लगे? और उन्हें यह शिक्षा ही कौन दे? हाँ कोई परोपकारपरायण विद्वान् संन्यासी (दण्डी) इसका उपदेश कर सकता और संस्कृताध्यायन में बाबू साहब को लगा सकता हैं। परन्तु मूर्ख पुरोहितों और गुरुओं ने, यह समझकर कि विद्वान् महात्मा के प्रवेश होने से हमारी टिक्की ही उड़ जायेगी, और यदि बारातों में वे लोग आकर धर्म का उपदेश करेंगे तो बहुत जगह के लोगों को एक ही साथ ज्ञान हो जायेगा, पहले ही से यह भरना प्रारम्भ कर दिया कि उनका दर्शन महा अमंगल हैं। यदि वे लोग श्राद्ध में आ जाये तो पितृलोग भाग जाये इत्यादि। फिर क्या हैं? अब वहाँ दण्डीजी की कौन गिनती? उनकी प्रतिष्ठा वहाँ कुत्तो से भी बढ़कर की जाने की तैयारियाँ होने लगीं। अब आप ही लोग विचारिये, इस सीधे-सादे अयाचक बाबू मण्डल में अज्ञानान्धाकार न छा जाये तो क्या होगा? जहाँ पर श्राद्ध संन्यासियों (दण्डियों) के विषय में ऐसा लिखा हुआ हैं कि-
अकाले यदि वा काले श्राध्दं कुर्यादतन्द्रित:।
पितृणां तृप्तिकामस्तु यतीन्प्राप्य द्विजोत्ताम:॥-ब्रह्मांडपुराण।
बिना मांसेन मधुना बिना दक्षिणयाशिषा।
परिपूर्णं बभवेछाध्दं यतिषु श्राद्धभोजिषु॥-दक्ष।
मुण्डं यतेन्द्रियं शान्तं ध्यान भिक्षुमकल्मषम्।
त्तान्नित्यं भोजयेछ्राद्धे दैवे पित्रये च कर्मणि॥-स्कन्दपुराण।
निवेशयेत्तु य: श्राद्धे पितृकर्मणि भिक्षुकम्।
आकल्पकालिका तृप्ति: पितृणामुपजायते॥-पराशर।
अर्थात् ''ब्रह्माण्डपुराण में लिखा हैं कि यदि किसी भी काल में संन्यासी द्वार पर आ जाये तो पितृ तृप्ति के लिए अवश्य श्राद्ध करे। दक्षस्मृति में लिखा हैं कि यदि दण्डी श्राद्ध में भोजन कर ले तो बिना दक्षिण तथा मधु आदि के ही श्राद्ध पूर्ण समझा जाता हैं। स्कन्दपुराण में लिखा हैं कि एक दण्ड वाले शान्त और ध्यानरत संन्यासी को नित्य ही श्राद्ध और पितृकर्म में भिक्षा करानी चाहिए। पराशर ने लिखा हैं कि जो पितृ कर्म में भिक्षु (दण्डी) को खिलाता हैं उनके पितरों की तृप्ति एक कल्पभर होती हैं इत्यादि।'' वहाँ पर संन्यासी को देखकर पितरों के भाग जाने की शिक्षा जो अनर्थन करवा दे उसी में आश्चर्य हैं। संन्यासी लोग स्वयं श्रध्दान्न को गर्वित समझ कर नहीं ग्रहण करते यह दूसरी बात हैं। बारातों या अन्य कार्यों में संन्यासी का उपदेश के लिए भी जाना अमंगल हैं यह बात तो कहीं भी मनु आदि धर्मशास्त्रों या अन्य ग्रन्थों में नहीं लिखी हुई हैं। फिर यह निर्मूल प्रलाप सर्वथा अनादर योग्य और नाश करने वाला हैं। संन्यासी का दर्शन तो शुभ कार्य में निषिद्ध नहीं हैं, परन्तु नीचों और शूद्रों की पुरोहिती और उनके अन्न से पेट भरने वालों का यदि मुख कहीं दीख पड़े, तो वह महा अमंगल हैं, जिसके लिए मनु भगवान् ने डंका पीट दिया हैं। परन्तु उसको तो बलात् याचक ब्राह्मणों के सिर पर प्राय: धारण कर लिया हैं और अपने मुख से पण्डित कहते तथा अन्यों से कहवाते हुए जरा भी नहीं हिचकते। वे लोग न जाने किस प्रकार मुख दिखलाने और बोलने का साहस करते हैं? यदि संन्यासी का दर्शन अमंगल भी मानें तो उसका यह अर्थ तो हैं नहीं कि वह अमंगल बाँधे फिरता हैं। किन्तु आँख आदि अंगों का अकस्मात् फड़कना जिस प्रकार अनिष्ट का सूचक हैं, न कि स्वाभाविक आँखों का हिलना भी, उसी प्रकार यदि अकस्मात् संन्यासी का दर्शन हो जायेगा तो उससे सूचित हो जायेगा कि तुम्हारा कोई अनिष्ट होने वाला हैं, सजग हो जाओ, ऐसी चेतावनी उसे मिल जाती हैं और वह होशियार कर देने से उपकारक ही हैं। परन्तु यदि जानबूझकर संन्यासी को कहीं लागेगा तो उससे अमंगल की सूचना भी कैसे होगी? क्या अपने से आँख हिलाने पर भी अमंगल की सूचना समझी जाती हैं? यदि गेरुआवस्त्र निषिद्ध हैं तो फिर विवाहों में उससे ही मकान क्यों रंगते हैं? संन्यासी मुर्दा समान हैं इस निर्मूल बात के कहने वाले ही मुर्दे हैं। यदि मुर्दा भी हैं तो अच्छा ही हैं, क्योंकि मुर्दे का दर्शन तो मंगल सूचक हैं। यदि कहीं पर भी काषाय वस्त्राधारी का निषेध मान भी लेगे तो वह लड़के-बालों वाले गुसाइयों का होगा, क्योंकि वे लोग शास्त्र से अति निन्दित सिद्ध होते हैं।
दूसरा कारण अयाचक ब्राह्मणों के संस्कृत न पढ़ने का यह भी हैं कि राज्य तथा जमींदारी का सम्बन्ध होने से यवनों से बहुत काल तक विशेष सम्बन्ध रहा, जिससे 'संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति, अर्थात् 'तुख्म तासीर सुहबत असर' के अनुसार उन्हीं यवनों के बहुत से गुण आने लग गये। जैसा कि फारसी पढ़ना, राय, सिंह, ठाकुर, चौधुरी और बाबू आदि शब्दों से ही प्रसन्न होना, न कि पाण्डे, तिवारी आदि शब्दों से। तम्बाकू पीने और सलाम करना-करवाना इत्यादि। जैसा कि आज तक अन्य ब्राह्मणों में भी पाया जाता हैं, जिसको आगे चलकर प्रसंग से दिखलायेगे और जब यह भी नीति हैं कि 'राजानमनरुवत्तान्ते, यथा राजा तथा प्रजा' तो इन ब्राह्मणों के इन सब आचारों के विषय में सन्देह करना और उसका और अर्थ लगाना अनुचित नितान्त भ्रम हैं। क्योंकि मिथिलादि देशों को लीजिये, तो जहाँ प्रथम यदि 100 पढ़ने वाले होते थे तो सभी संस्कृत ही पढ़ते थे, वहाँ अब केवल संस्कृत पढ़ने वाले कठिनता से 100 में 10 मिलेंगे, जिनका चित्ता भी अंग्रेजी की ओर लगा हुआ रहता हैं और अन्ततोगत्वा कुछ-न-कुछ उसे पढ़ लेते ही हैं और 90 तो उधर ही लगे हैं। यह बात क्यों होती हैं? आजकल सभी का सम्बन्ध अंग्रेज जाति के साथ समान और घनिष्ठ हैं और जो ही उसे पढ़ता हैं वही उनके दरबार में प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए सब लोग उधर ही टूटते हैं। ठीक ऐसा ही यवन काल में भी जान लीजिये। हाँ, उस समय इतना विशेष अवश्य था कि जो ही फारसी पढ़ ले उसी की प्रतिष्ठा नहीं होती थी, क्योंकि वे लोग अंग्रेज लोगों के जैसे विद्या के प्रेमी न थे। किन्तु बड़े-बड़े बाबुआनों की ही प्रतिष्ठा थी। इसीलिए और राजकार्य के भी उसी विद्या में होने से उन्हें फारसी अवश्य पढ़ना पड़ता था। इसीलिए अन्य ब्राह्मण या तो कुछ पढ़ते ही न थे, अथवा यदि दो-एक पढ़ने वाले होते भी थे तो लाचार होकर उसी संस्कृत को ही जिलाये रखते थे।
जब इस प्रकार से अयाचक ब्राह्मण दल में संस्कृत का प्राय: अभाव हो गया और उसकी विरोधिनी वह फारसी पिशाची उसकी जगह आ बैठी, तो उन लोगों को ब्राह्मण किसे कहते हैं, कौन ब्राह्मण श्रेष्ठ कहा जा सकता हैं और उसके धर्म या कर्म कौन से हैं इसका यथार्थ ज्ञान न हो सका। बल्कि उसका होना एक प्रकार से असम्भव-सा हो गया। क्योंकि ये सब बातें बिना संस्कृत के जानी नहीं जा सकतीं, इनका वर्णन केवल संस्कृत ग्रन्थों में ही हैं। और धीरे-धीरे उनमें से प्राय: बहुतेरे ऐसा समझने लगे (जैसा कि मुसलमान लोग समझते थे और समझते हैं तथा प्राय: अंग्रेजी ग्रन्थकारों की भी अब तक वही धारणा हैं) कि जो पुरोहिती आदि करे ओैर प्रतिग्रहादि तथा भिक्षा से अपना जीवन व्यतीत करे उसे ही पक्का ब्राह्मण कहते हैं। हम लोग भी ब्राह्मण ही हैं। परन्तु पक्के नहीं, किन्तु राजा, बाबू, जमींदार हैं। उसी दिन से विशेषकर जमींदार ब्राह्मण कहने की प्रथा पड़ गयी, जैसी आज भी प्रयाग, बाँदा तथा पूर्वीय अन्य प्रान्तों में पाई जाती हैं। इस विषय का मुझे स्वयं अनुभव हुआ हैं।
मैं रेल्वे ट्रेन में जाता था। इतने में दरभंगा प्रान्त के बछवारा जंक्शन के पास बाजिदपुर स्टेशन पर एक मनुष्य गाड़ी पर इण्टर क्लास में चढ़ा। उसके चेहरे से प्रतीत होता था कि ब्राह्मण हैं। मैंने पूछा कि क्या आप मैथिल ब्राह्मण हैं? उसने कहा कि हाँ हम मैथिल ब्राह्मण हैं, परन्तु जमींदार हैं, न कि साधारण मैथिल और जाले जलैवार मूल के हैं। पाठक उसके इस वाक्य का अर्थ लगा लें। क्या मेरे बतलाये हुए अभिप्राय से दूसरा हैं? बस इसी निश्चय को गुरु और पुरोहित भी बहुत दिनों तक पक्का करने लगे और धीरे-धीरे कहने लगे कि ब्राह्मण क्या आप तो राजा बाबू हैं और बाबू साहब भी इसी पर फूलने लगे। थोड़े दिन तक ऐसा ही होते-होते जब कुछ प्रमोद और बढ़ गया और संस्कृत का एकदम अभाव होकर प्रचण्ड मूर्खता सिर पर सवार हो गयी और उधर पुरोहतजी वाला वह उपदेश कि ब्राह्मण क्या आप तो राजा, बाबू, जमींदार हैं, खूब दृढ़ हो गया, तो उन बाबुओं को यह निश्चय हो गया कि पुरोहिती आदि करने, प्रतिग्रह लेने और भिक्षावृत्ति से जीविका करने वाले को ही ब्राह्मण कहते हैं, हम लोग तो जमींदार हैं। इस निश्चय के दृष्टान्त आज भी पाए जाते हैं, क्योंकि जब कोई किसी के द्वार पर गिरता, भिक्षादि लेने में विशेष आग्रह करता और जान देने पर तैयार हो जाता हैं तो उसी समय लोग कहते हैं कि यह 'बम्हनई' करता हैं। सदाचारी और पण्डित के व्यवहार पर 'बम्हनई' शब्द का प्रयोग नहीं होता। दरभंगा प्रान्त में किसी मैथिल ब्राह्मण ने किसी पश्चिम ब्राह्मण से कहा कि आप ब्राह्मण हैं या बाभन? तो उसने चट उत्तर दिया कि मैं तो बाभन हूँ, ब्राह्मण आप ही हैं। जब फिर उसने कहा कि ऐसा क्यों साहब? तो उसने उत्तर दिया, क्योंकि ''वराह यानी शूकर की तरह जिसका मन हो उसे ब्राह्मण कहते हैं, अर्थात् जैसे शूकर विष्ठा की ओर दौड़ा करता हैं वैसे ही जो दिन-रात खाने के पीछे दौड़ा करे और प्रतिग्रह कमाता फिरे उसे ब्राह्मण कहते हैं और मैं वैसा नहीं हूँ।'' क्या ये सब बातें उपर्युक्त सिद्धान्त को अक्षरश: सिद्ध नहीं करतीं?
बस इन्हीं दिनों से अयाचक ब्राह्मण दल में केवल जमींदार शब्द का प्रयोग चला जो आज तक भी बहुत जगह पाया जाता हैं। कुछ दिन के बाद उसी दल के (अयाचक ब्राह्मण दल के) कुछ लोगों ने विचारा कि जमींदार तो सभी जातियों को कह सकते हैं, फिर हममें और अन्य जातियों में, जो जमीन वाली हैं, भेद क्या रह जायेगा? और थोड़े दिन बाद गड़बड़ मचने लग जायेगी। इसीलिए जमींदार शब्द के ही अर्थ में संस्कृत भूमिहार शब्द का प्रयोग अपने समाज में करना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि भूमिहार जमींदार शब्दों के अर्थ एक ही हैं, तथापि पृथक् संकेत कर लेने से अब सबके मिलने का डर न रह गया। क्योंकि जैसे नमस्कार और प्रणाम शब्दों के अर्थ एक ही हैं तथापि ब्राह्मण ही परस्पर एक-दूसरे को नमस्कार करते हैं और दूसरे लोग प्रणाम ही करते हैं। मिथिला में तो यहाँ तक प्रचार हैं कि शूद्र तथा अन्त्यज भी ब्राह्मणों को प्रणाम ही करते हैं, परन्तु यदि अन्य जाति नमस्कार शब्द का प्रयोग कर दे तो दंगा मच जाये। हालाँकि दोनों के अर्थ में कुछ भी भेद नहीं हैं, परन्तु सांकेतिक भेद मान लिया गया हैं। बस यही दशा भूमिहार और जमींदार शब्दों की हैं। केवल सांकेतिक भेद मान लिया गया हैं जिससे भूमिहार कहने से अयाचक ब्राह्मणदल का बोध होता हैं, न कि जमींदारादि शब्द कहने से। इसके विषय में विशेष विचार तथा इसका प्रयोग कब से हुआ इस विषय में भी अच्छी तरह से विचार ग्रन्थ में ही आगे चलकर किया जायेगा।
इसी जगह इतना और समझ लेना चाहिए कि यवनादि काल में जहाँ इन ब्राह्मणों का प्राधान्य नहीं रहा हैं, किन्तु राजपूत आदि जातियाँ ही प्रधान रही हैं, वहाँ ये लोग अब तक उसी पाण्डेय, तिवारी, चौबे, दूबे तथा मिश्रादि नामों से शाहाबाद आदि प्रान्तों में कहे जाते हैं, क्योंकि वहाँ डुमराँव राज्य का ही प्राधान्य रहा हैं। ऐसे ही अन्यत्र भी उन्हीं पाण्डेय आदि के घनिष्ठ सम्बन्ध से लोग प्रधान होने पर भी उसी पुराने नाम से कहे जाते हैं।
बस अब क्या हैं? इसी अविद्यान्धकार में स्वार्थान्धा, द्वेषी और परीहितकारी डाकुओं की बन पड़ी और बहुत सी किताबें लिखी जाने और किंवदन्तियाँ रची जाने लगीं। जिनका मुख्य उद्देश्य यह था और हैं कि और बातों में तो वे लोग बढ़े ही हैं, परन्तु बबुआई ठाट में विद्या नहीं पढ़ते। यहाँ तक मस्त हैं कि अंग्रेजी का भी नाम नहीं लेते। इसलिए सहस्रों कुकल्पनाएँ करके इन्हें जाति में ही नीचा कर दो, जिसे ये लोग समझ भी न सकें और हम लोगों का स्वार्थ भी सिद्ध हो जाये और फिर इन्हें लूटकर खा जाये। क्योंकि यदि सिंह को यह अभिमान हो जाये कि मैं गीदड़ हूँ तो फिर उसकी पीठ पर बोझ लादने में क्लेश ही क्या हो सकता हैं? इसी प्रकार ये लोग यदि जात्यभिमान में नीचे पड़ जायेगे तो इनकी सब योग्यता मिट्टी में मिल जायेगी। और हम स्वार्थी गुरु, पुरोहित तथा कर्मचारियों की खूब बन पड़ेगी, फिर जैसा चाहेंगे 'चें-में' बोलाया करेंगे। इसीलिए बड़े-बड़े छल से ऐसी-ऐसी पुस्तकें बनी जिनमें यह तो स्पष्ट रूप से लिख अथवा लिखवा दिया गया कि आप लोग केवल ब्राह्मणों की सेवा के लिए बनाये गये हैं इत्यादि। और वे अविद्याग्रस्त होने से उस आन्तरिक छल-कपट और द्वेष की या तो समझ ही न सके, अथवा इन्हें यह अवसर और सौभाग्य ही न प्राप्त हुए कि उन ग्रन्थों को देखें भी। उधर मनुष्यगणना के विवरण तथा अन्य वैदेशिकों के ग्रन्थों में भी लोगों ने कुछ झूठ-साँच कह-सुनकर छल-कपट से उलटा-पलटा कुछ-का-कुछ लिखवा दिया। ईधर दोनवार, किनवार तथा गौतमादि नाम देख अंग्रेजों के साथ मिलकर यह विचार और निर्णय किया जाने लगा कि ये लोग क्षत्रिय हैं इत्यादि। इसी तरह की बहुत सी स्वार्थ और द्वेषपूर्ण कल्पनाएँ होने लगीं जिनकी विस्तारश: समालोचना आगे की जायेगी। बड़ा भारी आश्चर्य तो यह हैं कि ये जितनी बातें की गईं वे सब इस समाज के सामने न की जाकर चोरी से परोक्ष में की गयीं। इसीलिए अंग्रेज लोग अपनी सभी किताबों में यही लिख गये हैं कि 'Their Brahman and Chhatri neighbours insinuate etc...'- जिसका तात्पर्य यह हैं कि 'इन (भूमिहार ब्राह्मणों) के पड़ोसी ब्राह्मण और राजपूत चुपके से इशारा करते या उकसाते हैं कि...'। इसीलिए साफ दिल होने से अन्त में लिख भी दिया हैं कि 'To this view, however, there is no evidence' 'अर्थात् लेकिन उन लोगों की इन उक्तियों में कोई भी प्रमाण नहीं हैं।'
भला जहाँ पर किसी अज्ञानान्धकार में पड़े हुए सर्वोच्च और प्रतिष्ठित समाज को नीचा दिखलाने के लिए इस प्रकार छल-कपट और चोरियाँ की जाती हैं वहाँ कल्याण की कौन सी आशा की जा सकती हैं? इन्हीं सब अनर्थों को देखकर एक ऐसे ग्रन्थ के बनाने की आवश्यकता हुई जिसमें इन सब मिथ्या कुकल्पनाओं की खुले शब्दों में निष्पक्षपात भाव से समालोचना की जाये और इस विषय पर आज तक जितनी कुशंकाएँ हुई हैं या हो सकती हैं उनका मुँहतोड़ उचित समाधन कर दिया जाये, जिसमें भविष्य के लिए मार्ग साफ रहे और श्रुति, स्मृत्यादि प्रमाणों से अयाचक ब्राह्मणों का उज्ज्वल और सर्वोत्ताम स्वरूप प्रकाशित कर दिया जाये, जिसमें अकारण द्वेषी और स्वार्थी लोग चूँ न कर सकें।
एक बात और भी हैं कि जैसे अन्य ब्राह्मणों तथा दूसरे समाजों का कुछ-न-कुछ इतिहास लिखा हुआ हैं इसी कारण से उनके ऊपर विशेष रूप से कोई भी आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता। क्योंकि जागने वाले गृह में चोरी करने का साहस कौन कर सकता हैं? वैसे ही यदि अयाचक ब्राह्मण समाज का कोई निज का टूटा-फूटा भी सच्चा इतिहास होता तो आज इसकी ऐसी दुर्दशा न होती और जो ही चाहता वही मनमानी निन्दाएँ करने का साहस नहीं करता। इसलिए इस महती त्रुटि की पूर्ति के लिए भी ऐसे ग्रन्थ की नितान्त आवश्यकता थी।
सबसे बड़ी बात यह हैं कि जिस जाति, देश या समाज का इतिहास नहीं होता, वस्तुत: उसकी स्थिति संसार में रही नहीं सकती। इसीलिए जो समाज जिसको दबाना चाहता हैं वह प्रथमत: उसके इतिहास को ही बिगाड़ता हैं, यह विषय इतिहासवेत्ताओं को परोक्ष नहीं हैं। क्योंकि किसी समाज का सच्चा इतिहास ही उसके पूर्वोत्तर पुरुषों की स्थिति का परिचय कराता हुआ गिरे हुओं को उठाने में संजीवनी बूटी का-सा काम करता हैं। क्योंकि वह हमें सिखलाता हैं कि हमारे पूर्वपुरुष अमुक-अमुक कार्य करने से उन्नति के शिखर पर आरूढ़ थे। इसलिए हमको भी उन्नति प्राप्त करने के लिए वैसे ही कार्य करने चाहिए। हम मृगराज के वंशज हैं, न कि शृगाल के। अत: हमको अपने वास्तविक गौरव और स्वरूप का स्मरण करना चाहिए इत्यादि।
इन्हीं सब उद्देश्यों को लेकर मेरी प्रवृत्ति इस ग्रन्थ में हुई हैं। ताकि अयाचक ब्राह्मण समाज के सुचारु इतिहास भवन की प्रतिष्ठा (नींव) तैयार हो जाये, जिसमें भित्ति आदि द्वारा उस सुशोभापूर्ण रमणीय भवन के निर्माण करने वालों को भविष्य में सौकर्य हो। इस महा विशाल इतिहासागर की प्रतिष्ठा (नींव) सुदृढ़ और सुचारु रूप से बननी चाहिए। अत: उसकी दृढ़ता के लिए मैं उन्हीं श्रुति, स्मृति, पुराण तथा शिष्टाचार प्रमाणरूप अमूल्य पाषाणों का अवलम्बन करता हुआ विषय-विवेचन करूँगा। विषय का सम्यग्विभाग रहे और जन साधारण भी उसको पूर्णतया हृदयंगम कर सके इसके लिए मैं इस ग्रन्थ को पूर्वार्ध्द और उत्तरार्ध्द इन दो विभागों में विभक्त करूँगा और अन्त में परिशिष्ट रहेगा। जिनमें से पूर्वभाग का नाम द्विविधा ब्राह्मण विचार और उत्तर का नाम कण्टकोध्दार होगा। द्विविध ब्राह्मण विचार प्रकरण में श्रुति, स्मृति, पुराण तथा सदाचारादि प्रमाणों से अयाचक ओैर याचक इन दो प्रकार के ब्राह्मणों के स्वरूपों का सुस्पष्टतया निरूपण होगा और उसकी पुष्टि में साम्प्रतिक परस्पर दोनों के नमस्कारादि के पत्रों, समाचार-पत्रों तथा बड़े-बड़े विद्वानों के हस्ताक्षर युक्त बड़ी-बड़ी व्यवस्थाओं का प्रदर्शन किया जायेगा और जो सबसे प्रबल और सम्प्रति विद्यमान प्रमाण इस विषय में परस्पर विवाह सम्बन्ध हैं, जो जमींदार, भूमिहार, पश्चिमी ब्राह्मणों का सर्यूपारीणों, कान्यकुब्जों तथा मैथिलों के बड़े-बड़े कुलीनों के साथ होता था और हो रहा हैं और त्यागी ब्राह्मणों का गौड़ ग्राही ब्राह्मणों के साथ हो रहा हैं और जिसे मैथिल महासभा, मिथिला मिहिर पत्र तथा भारत मित्रादि पत्रों ने भी बिना रोक-टोक स्वीकार किया हैं, उसके भी विस्तारश: प्रदर्शनपूर्वक रहस्यों का उद्धाटन करेंगे। इसके अतिरिक्त इस प्रकरण में बहुत से छोटे-छोटे अवान्तर प्रकरण होंगे, जिनमें वैदिक समय से लेकर आज तक के शृंखलाबद्ध ब्राह्मणों के स्वरूप तथा आचार, व्यवहार और जीविका रूप इतिहास का वर्णन स्वदेशी तथा विदेशी प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर होगा। जिसका प्रदर्शन विस्तारश: वैदिक, स्र्मात्ता, पौराणिक, बौद्ध, यवन और ब्रिटिश कालक्रम से किया जायेगा। साथ ही, भूमिहार, पश्चिम, जमींदार, त्यागी, महियाल वगैरह संज्ञा सम्बन्धी कालादि का भी विशेष विचार करते हुए ब्राह्मणों के जीविकार्थ तथा धार्मिक कर्मों का निरूपण किया जायेगा और ठाकुर आदि उपाधियों का विवेचन करते हुए साम्प्रतिक आचारों का भी दिग्दर्शन कराकर उनके औचित्यनौचित्य का विचार किया जायेगा और उनके कारण भी दिखलाये जायेंगे इत्यादि।
एवं द्वितीय प्रकरण में, जिसका नाम कण्टकोध्दार होगा इस ब्राह्मण समाज पर आज तक जितने अनुचित और भ्रममूलक मिथ्या आक्षेप हुए हैं उनके प्रदर्शनपूर्वक उनकी कड़ी समालोचना करते हुए उनका उचित समाधन किया जायेगा और उसके बहुत से छोटे-छोटे अवान्तर प्रकरणों में अयाचक ब्राह्मणों के उत्पत्ति विषयक प्रश्नों की समालोचना होगी और इस विषय पर कल्पित ग्रन्थों की निस्सारता का सुचारु रूप से निरूपण होगा। इसके बाद इस विषय की तथा अन्य विषयक जितनी किंवदन्तियाँ आदि और तन्मूलक स्वदेशी तथा विदेशी सज्जनों के जो वाक्य-बाण हैं उनके लिए उचित और अभेद्य रक्षा स्थान बनाया जायेगा। किनवार, दोनवार, सकरवार तथा गौतमादि सदृश नाम-रूप-दोषों के ज्ञानचक्षु में लग जाने से लोगों को जो भ्रम उत्पन्न हो गये हैं और उसी दशा में जो कुछ वे लोग बक गये हैं, उसके लिए उचित अंजन तैयार किया जायेगा और वह ऐसा होगा कि एक बार उसके लगा देने से फिर भविष्य में ऐसे रोग कभी हो ही न सकें। इसके अतिरिक्त जो स्फुट अनेक प्रकार के प्रश्न हुआ करते हैं उनकी भी उचित मीमांसा की जायेगी।
ग्रन्थन्त में परिशिष्ट होगा। जिसमें सम्पूर्ण कथन के चरम परिपाक के प्रदर्शन पूर्वक अवशिष्ट, अत्यन्तोपयोगी और अवश्य वक्तव्य तथार् कर्त्तव्य विषयों का निरूपण करते हुए ग्रन्थ की समाप्ति की जायेगी।
अन्त में जगदाधार सर्वान्तर्यामी से यही प्रार्थना हैं कि वह इस ब्राह्मण समाज तथा भारत वर्ष की अज्ञान निद्रा को भंग करके सबको यथार्थ ज्ञान और द्वेष तथा पक्षपात शून्य बात बोलने और लिखने की सुबुद्धि प्रदान करे और साथ ही, मेरे इस अल्प परिश्रम से लोगों को लाभ उठाने की भी सुमति दे, जिसमें मेरा केवल परोपकारार्थ यह दीर्घकाल का श्रम सफल हो। सबके पश्चात् मैं इसके अवलोकन तथा समालोचना करने वालों से यह प्रार्थना करता हूँ कि लोग यद्यपि इनमें दोषोद्धाटन तो अवश्य करेंगे ही। क्योंकि वे भी अपनी अपरिहार्य छिद्रारोपिका प्रकृति रमणी के किंकर हैं। परन्तु ऐसा करने से पूर्व इस ग्रन्थ को निष्पक्षपात भाव से सम्यक्तया आलोड़न कर लें और मेरे तात्पर्य को भली-भाँति हृदयंगम करके उचित दूषण दें तो मैं उसे सहर्ष शिरोधारण करने के लिए सर्वदा कटिबद्ध हूँ। क्योंकि तात्पर्य को समझकर दूषण देने से दु:ख नहीं होता। अब मैं श्रीयुत् कुमारिल स्वामी तथा रघुनाथ शिरोमणि भट्टाचार्य के इसी विषय के वचनों को पाठकों के सम्मुख प्रदर्शित करके अनुरोध के साथ अपने इस वक्तव्य को यहीं पर समाप्त करता हूँ और आशा करता हूँ कि आप लोग इस धृष्टता को क्षमा करेंगे। वे वचन निम्नांकित हैं :-
¹नचात्रातीवर् कत्ताव्यं दोषदृष्टिपरं मन:
दोषोह्यविद्यमानोपि तद्दृष्टीनां प्रकाशते।
मान्यान्प्रणम्य विहिता×जलिरेष भूयो,
भूयो विधाय विनयं विनिवेदयामि।
दूष्यं वचो मम परं निपुणं विभाव्य,
भावावबोधाविहितो न दुनोति दोष:॥ इति॥  -लेखक
॥¬ शम्॥


¹ तात्पर्य यह हैं कि सभी जगह अत्यन्त दोष दृष्टि नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसकी दृष्टि में दोष (पित्ता रोग) हो जाता हैं उसे सभी वस्तुओं में न रहने वाला भी दोष (पीलापन) मालूम होता हैं।

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