शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार-5

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार
निर्भीतिभूषितकरात्स्फटिकाभगात्रा-
दाशाम्बरादरुणपद्मदलाधारोष्ठात्
राकेशसुन्दरमुखात्सरसीरुहाक्षा-
च्छम्भो: परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥ 1 ॥
कले: प्रभावादबलोक्य हानं धर्मस्य देवैर्मुहुरर्द्यमान:।
समावतीर्णोम्बुधिदेश्यवर्गैंर्य: शंकरो धर्मगुपेसनोव्यात्॥ 2 ॥
तस्यैव वैनेयपरम्परायामन्तर्गतोन्त्याश्रमसंज्ञितायाम्।
श्रीविश्वरूपोननुविश्वरूपोयोभूदहंप्रा जलिरानतस्तम्॥ 3 ॥
यस्येति वाक्यात्तात्पादपद्मेभृंगायमाणं तमनन्यभावम्।
तच्छिष्यमानौमि गुरुं गुरोमरें भूमादिमानन्दसरस्वतीं वै॥ 4 ॥
क्रीडन्तमद्वयानन्देऽद्वैतानन्दसरस्वतीम्।
तुर्याश्रमस्थं तुर्यं स्वं देशिकं प्रणमाम्यहम्॥ 5 ॥
क्रियते सहजानन्दसरस्वत्याख्यदण्डिना।

पूर्वार्ध्द-द्विविधा ब्राह्मण विचार
ब्राह्मणा द्विविधा राजन् धर्मश्च द्विविधा: स्मृत:।
प्रवृत्ताश्च निवृत्तश्च निवृत्तो हं प्रतिग्रहात्॥ (म. शां.)

(1) ब्राह्मणलक्षण
श्रुति, स्मृति तथा पुराणादि के अवलोकन से स्पष्ट हैं कि मैथुनी सृष्टि से पूर्व विराट् भगवान् अथवा हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा वा प्रजापति) ने सांकल्पिक (मानसिक) सृष्टि की और तदनुसार ही ब्राह्मणादि वर्णों को परस्पर विलक्षण सूचित करने के लिए मुखादि भिन्न-भिन्न अंगों से उत्पन्न किया। जैसा कि शुक्ल यजुर्वेद के 32वें अध्याय के 12वें मन्त्र से स्पष्ट हैं :
ब्राह्मणो स्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्ययद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥
जिसका तात्पर्य यह हैं कि 'हिरण्यगर्भ वा प्रजापति के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघे से वैश्य, और पाँव से शूद्र उत्पन्न हुए।' क्योंकि इसके बाद के मन्त्र 'चन्द्रमा मनसो जात:' में पंचम्यन्त पद 'मनस:' रखा हैं, जिसका अर्थ यही हो सकता हैं कि मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई। तदनुसार ही इस पूर्व मन्त्र में भी अर्थ करना चाहिए। इस स्थान पर जो लोग यह कहा करते हैं कि ऐसा अर्थ करने से सृष्टि क्रम से विरोध पड़ता हैं, क्योंकि आजकल मुखादि अंगों से किसी की उत्पत्ति नहीं देखते। उनसे पूछना चाहिए कि अच्छा, तो फिर सृष्टि प्रारम्भ काल में प्रथम स्त्री-पुरुष थे ही नहीं तो सृष्टि कैसे हुई? इसलिए यह मानना ही पड़ेगा कि प्रथमत: ईश्वर ने कुछ स्त्री-पुरुषों को संकल्प से ही उत्पन्न किया। तदनन्तर सृष्टिक्रम उन्हीं से चला जो आज तक हैं। अत: मानसिक सृष्टि के विषय में, जिसका मानना अत्यावश्यक हैं, यह शंका हो ही नहीं सकती। मनुजी भी स्पष्ट रूप से प्रथमाध्याय के 31वें श्लोक में यही बात कहते हैं। जैसा कि लिखा हैं :
लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुखबाहूरुपादत:।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्रवत्तायत्॥
इस श्लोक में तो स्पष्ट रूप से 'मुखबाहूरुपादत:' इस पंचम्यन्त पद का प्रयोग हैं। यदि मुखस्थानपन्न ब्राह्मण हुए इत्यादि रूप अर्थ पर ही आग्रह हो तो भी हमारा कोई विरोध नहीं हैं। इस मानसिक सृष्टि के बाद उन्हीं उत्पन्न स्त्री-पुरुष व्यक्तियों द्वारा मैथुनी सृष्टि हुई और यद्यपि मानसिक सृष्टि में भी वर्णों का विभाग था, जैसा कि अभी कह चुके हैं, अत: उसके अनुसार भी जातियों का नियम हो सकता हैं, या था। तथापि आजकल के जीवों में मुख आदि से उत्पत्ति नहीं पाई जाती हैं। इसलिए महर्षियों ने 'मुख से जो उत्पन्न हुआ उसे ब्राह्मण कहते हैं' इत्यादि जातियों का लक्षण न करके 'ब्राह्मण्यां ब्राह्मणेनैवमुत्पन्नो ब्राह्मण: स्मृत:' (हारीतस्मृतिं 1, अ. 15) अर्थात् 'ब्राह्मणी के रज और ब्राह्मण के वीर्य से जो विधिवत् उत्पन्न होता हैं उसे ब्राह्मण कहते हैं, इत्यादि रूप ही लक्षण किया हैं। ऐसी दशा में किसी का यह कथन कि 'क्योंकि तुम दान नहीं लेते और पुरोहिती नहीं करते हो, अत: ब्राह्मण नहीं हो केवल मूर्खता हैं। क्योंकि जब उसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से हैं तो उसकी ब्राह्मणता में सन्देह ही क्या हो सकता हैं? हाँ इतना अवश्य हो सकता हैं कि यदि वह ब्राह्मणोचित कर्म न करेगा तो पतित अथवा हीन ब्राह्मण समझा जा सकता हैं। परन्तु प्रतिग्रहादि तो ब्राह्मणोचित कर्म नहीं हैं, प्रत्युत ब्राह्मणतत्त्व को सत्यानाश में मिलानेवाले हैं। जैसा कि मनुजी ने कहा हैं और अन्यत्रा भी लिखा हैं कि :
प्रतिग्रहसमर्थो पि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।
प्रतिग्रहेणह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥ म. 4/186
पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम्। स्कन्दपु.
अर्थ यह हैं कि 'यदि प्रतिग्रह करने में सामर्थ्य भी रखता हो (अर्थात् उससे होनेवाले पाप को हटाने के लिए बहुसंख्य गायत्रीजप और तपस्यादिक भी कर सकता हो) तो भी प्रतिग्रह का नाम भी न ले, क्योंकि उससे शीघ्र ही ब्रह्मतेज (ब्राह्मणता) का नाश हो जाता हैं। ब्राह्मण कहता हैं कि हम पुरोहिती को निन्दित और जन्म को दूषित करनेवाली जानते हैं'। जैसा रामायण में स्पष्ट लिखा हैं कि 'उपरोहिती कर्म अतिमन्दा। वेद पुराण स्मृति कर निन्दा।' इत्यादि। इसका विस्तारपूर्वक विचार आगे होगा। ऐसी दशा में प्रतिग्रह या पुरोहिती से रहित किसी-किसी शुद्ध प्राह्मण या ब्राह्मण समाज को ब्राह्मण न कहना, या हीन ब्राह्मण कहना केवल मूर्खता, द्वेष, नास्तिकता और धृष्टतामात्र हैं। यदि प्रतिग्रह या पुरोहिती ब्राह्मणोचित कर्म मान भी लिये जाये तो भी उनका न करनेवाला ब्राह्मण क्यों न कहा जायेगा? क्योंकि कर्म करने से जाति मानना विधाख्रमयों का सिद्धान्त और अनभिज्ञता हैं। सनातन धर्म का तो अटल सिद्धान्त हैं कि आम्र के बीज से जो उत्पन्न होगा वह आम्र ही होगा चाहे उसका सिंचन आदि करिये या न करिये। श्रुति भी यही कहती हैं कि 'अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयीत तं चाधयापयोत' अर्थात् 8 वर्ष के ब्राह्मण का उपनयन संस्कार कराकर उसे पढ़ायें।' मनुजी भी कहते हैं कि 'गर्भाष्टमे ब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्'। 2 अ., 36। अर्थात् 'गर्भ से आठवें वर्ष ब्राह्मण का उपनयन करावे।' यद्यपि उपनयन संस्कार से पूर्व उसने कोई भी ब्राह्मणता-सम्पादक कर्म नहीं किये हैं और न भविष्यत् का ही निश्चय हैं, तथापि उसे ब्राह्मण ही, स्पष्ट शब्दों में, कह दिया हैं। इसलिए यही सिद्धान्त हैं कि ब्राह्मणी और ब्राह्मण द्वारा जिसकी उत्पत्ति शास्त्रीय रीति से हो उसे ही ब्राह्मण कहते हैं। जिसके धर्म-संध्या-वन्दनादि हैं, न कि पुरोहिती या प्रतिग्रह आदि।
ब्राह्मण धर्म
(क) धर्मार्थ कर्म- अब यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता हैं कि अच्छा, ब्राह्मण जाति का यही सामान्य स्वरूप रहे। परन्तु उसमें उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ भाव किस प्रकार से हुआ और हो रहा हैं? क्या लोगों की यह धारणा कि अमुक विप्र उत्तम हैं और अमुक मध्यम इत्यादि, मिथ्या ही हैं? इस प्रश्न के हल करने का सबसे उत्तम उपाय यही हैं कि ब्राह्मणों के स्वरूप का विचार, उनके आचार-व्यवहारों की देखभाल और उनके धर्मों के विषय में शास्त्रों की आज्ञाओं का परिशीलन (मीमांसा पर विचार) कर लिया जाये कि याज्ञवल्क्यादि महर्षियों के समय से आज तक वे लोग किस मार्ग का अवलम्बन करने से कैसे माने गये हैं। उन्होंने धर्म और जीविका चलाने के लिए किन-किन कर्मों का आश्रय लिया हैं, उनमें से किसे उत्तम, मध्यम अथवा हीन समझा हैं और भविष्य के लिए कौन से शिक्षा रूप बीज बोये हैं। क्योंकि शिष्टों (श्रेष्ठ पुरुषों) के आचार भी प्रमाण माने जाते हैं। अतएव पूर्व मीमांसा दर्शन के प्रथमाध्याय के तृतीय पाद के अष्टन् अधिकरण में 'अनुमानव्यवस्थानात्तात्संयुक्तं प्रमाण स्यात्'॥ 15॥ इत्यादि सूत्रों द्वारा होलिकादि शिष्टाचारों को प्रमाण मानकर उनके विषय में विशेष विचार किया गया हैं और उसी पाद के 5वें अधिकरण में दाक्षिणात्य ब्राह्मणों में प्रचलित शिष्टाचार के अनुसार मामा की कन्या के साथ के विवाह को लोग उचित न समझ लें, इसके लिए :
मातुलस्य सुतामूढ्वा मातृगोत्रां तथैव च।
समान प्रवरां चैव त्यक्त्या चान्द्रायणं चरेत्॥
अर्थात्! मामा की लड़की, माता के गोत्र की लड़की और अपने गोत्र वाली लड़की से भूलकर ब्याह लेने पर भी उसे छोड़कर चान्द्रायण व्रत करें', इस स्मृति वचन के विरुद्ध होने से उस आचार को उन्होंने अप्रामाणिक ठहराया हैं। परन्तु आजकल तो इतनी प्रबल मूर्खता हो गयी हैं कि अज्ञानवश अथवा तृष्णादि में पड़कर प्राय: सभी ब्राह्मण एवं अन्य जातियाँ अपने और माता के गोत्र में विवाह करने में नहीं हिचकतीं।
अस्तु, अब देखना चाहिए कि श्रुति तथा मनु आदि महर्षियों की आज्ञाएँ ब्राह्मणों के प्रति धार्मिक विषयों में-विशेषकर जीविका और धर्म के लिए किये जाने वाले कर्मों के विषय में कैसी हैं। इस जगह इतना और भी स्मरण रखना होगा कि सभी धर्म अनापत्कालिक (जो किसी दबाव य मजबूरी के किये जा सकें) और आपत्कालिक (जो तकलीफ-दबाव पड़ने पर हार कर किये जाये) इन दो प्रकार के हैं। इससे विषय के विवेचन (निर्णय) में आसानी होगी।
छान्दोग्योपनिषत् के द्वितीय प्रपाठक के 23वें खण्ड में लिखा हैं कि :
त्रायोधर्मस्कन्धा यज्ञो ध्यायनं दानध्मिति प्रथम:।
जिसका भाव यह हैं कि नित्य नैमित्तिकादि धर्म रूप वृक्ष की तीन बड़ी-बड़ी शाखाएँ, जिनमें पहली शाखा यज्ञ, वेद और शास्त्रों का पढ़ना और दान रूप हैं।' इन्हीं में सन्ध्या और अग्निहोत्र वगैरह भी आ गये, क्योंकि अग्निहोत्र यज्ञ का स्वरूप ही हैं और गायत्री का जप भी उससे बाहर नहीं हैं। जैसा कि गीता में भगवान् श्रीकृष्णजी ने कहा हैं :
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथा परे। (अ. 4/28)
भावार्थ यह हैं कि 'कोई द्रव्यों (काष्ठ, घृत आदि) से यज्ञ करते, कोई गायत्री जप एवं व्रतादि रूप जो तप कहलाते हैं उन्हीं यज्ञों को करते और कोई समाधि रूप ही यज्ञ करते हैं।' यदि अध्यायन को भी यज्ञ में मिला ले तो कोई हानि नहीं हैं, परन्तु पढ़ने का फल यज्ञ हैं इसलिए उसे श्रुतियों और स्मृतियों में यज्ञ से पृथक् ही गिनाया हैं। मनुस्मृति में जो लिखा हैं कि :
अध्यापनमध्यायनं याजनं यजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्रजन्मन:॥ 10। 75
अर्थात् 'पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान और प्रतिग्रह ये छह कर्म ब्राह्मणों के हैं'। उसका भी यही आशय हैं कि अध्यायन (पढ़ना), दान और यज्ञ करना यही तीन कर्म धर्म के लिए हैं, शेष तीन तो जीविका के लिए हैं। परन्तु जगदुत्पत्ति प्रकरण प्रथम अध्याय में इन छह कर्मों की उत्पत्ति के साथ ही कही गयी हैं। इसलिए यहाँ भी सभी का नाम प्राय: उसी उत्पत्ति प्रकरण के श्लोक द्वारा लिया हैं। वास्तव में तो यह प्रकरण (मनुस्मृति का दसवाँ अध्याय) उन कर्मों का हैं जो आपत्काल में जीविका के लिए किये जा सकते हैं। इसीलिए अगले श्लोक में लिख दिया हैं :
षण्णां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका।
याजनाध्यापने चैव विशुध्दाच्चप्रतिग्रह:॥ म.। 10। 76
अर्थात् 'पूर्वोक्त छह कर्मों में से यज्ञ कराना, पढ़ाना और शुद्ध जनों का प्रतिग्रह करना ये कर्म तो जीविका के लिए हैं। परन्तु यदि इन्हीं तीनों को यहाँ लिखने और पढ़ने, यज्ञ करने और दान को छोड़ देते तो जैसा कि लोग फिर भी आज समझने लग गये हैं; समझने लग जाते कि आपत्ति काल में पढ़ने, यज्ञ करने और दान देने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। क्योंकि मनुस्मृति में उसकी आज्ञा नहीं हैं। इसलिए मनु भगवान् ने इन तीनों को भी साथ ही लिख दिया हैं। अत्रिजी भी लिखते हैं कि :
कर्म विप्रस्य यजनं दानमध्यायनं तप:।
प्रतिग्रहो धयापनं च याजनं चेति वृत्ताय:॥ 13॥
तात्पर्य यह हैं कि 'ब्राह्मण के कर्म (धर्म) तो यज्ञ, दान और अध्यायन ये तीन ही हैं, प्रतिग्रह, पढ़ाना और यज्ञ कराना ये तीन तो जीविकाएँ हैं। ब्राह्मण के धार्मर्थक कर्म यज्ञ, अध्यायन और दान तीन ही हैं। गीता में भी लिखा हैं कि :
शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ 18॥ 42
अर्थ यह हैं कि 'मन और इन्द्रियों का विषयों से रोकना, तपस्या, आभ्यन्तर और बाह्य शौच, क्षमा, नम्रता, शास्त्र-ज्ञान और अनुभव रूप (साक्षात्कार रूप) ज्ञान ब्राह्मणों के स्वाभाविक धर्म हैं। इनमें याजन अथवा अध्यापन के तो नाम भी नहीं हैं। पराशर स्मृति के प्रथमाध्याय में भी लिखा हैं कि :
संध्या स्नानं जपो होमो देवतानां च पूजनम्।
आतिथ्यं वैश्वदेवं च षट्कर्माणि दिने दिने॥ 39॥
अर्थात् 'रात और दिन की सन्धि समय में स्नान, गायत्री को जप, अग्निहोत्र, शिवविष्ण्वादि देवों का पूजन, यथाशक्ति, अतिथि का सत्कार और बलिवैश्यदेव ये छह कर्म ब्राह्मणों को नित्य करने चाहिए। मनुजी अन्त में भी 12वें अध्याय में
लिखते हैं :
यथोक्तान्यपि कर्माणि परिहाय द्विजोत्ताम:।
वेदाभ्यासे शमे च, स्यादात्मज्ञाने च यत्नवान्॥ 92॥
जिसका भाव यह हैं कि ब्राह्मणों के लिए जो बहुत से कर्म बतलाये गये हैं उनका त्याग भी करके वे वेदाभ्यास, चित्तनिरोधा (समाधि) आत्मज्ञान के लिए प्रयत्न करें। इससे स्पष्ट ही हैं, कि मनुजी को वेदाभ्यास प्रभृति कर्मों की ही प्रधानता विवक्षित हैं, जिनके अन्तर्गत संध्या और अग्निहोत्र भी हैं। याज्ञवल्क्यजी ने भी आचाराध्याय मं कह दिया हैं कि :
जपन्नासीत्सावित्रीं प्रत्यगातारकोदयात्॥ 24॥
संध्यां प्राक्प्रातरेवंहि तिष्ठेदासूर्यदर्शनात्।
अग्निकार्यं तत: कुर्यात् सन्ध्ययोरुभयोरपि॥ 25॥
अर्थात् 'सन्ध्या समय पश्चिम मुख बैठ कर तारा के निकलने तक और प्रात: पूर्व मुख बैठकर सूर्योदय पर्यन्त गायत्री जप करे। उसके बाद दोनों सन्धिकाल में अग्निहोत्र करे।' श्रुतियों में यही अनुशासन (आज्ञा) अन्यत्र भी हैं, जैसा कि शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में लिखा हैं कि :
'स्वाधयायो ध्येतव्य:' 'अहरह: सन्ध्या-
मुपासीत,' 'अग्निहोत्रीं जुहूयात्'।
अर्थ यह हैं कि 'वेद नित्य पढ़ना और सन्ध्या अग्निहोत्र नित्य करना चाहिए।' इत्यादि शतश: श्रुति स्मृत्यादि प्रमाणों से सिद्ध हैं कि ब्राह्मणों के लिए धार्मर्थक कर्म केवल अध्यायन, सन्ध्यानुष्ठान, अग्निहोत्र और वैश्वदेव आदि ही हैं, न कि अध्यापन (पढ़ाना) और याजन (यज्ञ कराना) आदि भी। याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय के 118वें श्लोक के व्याख्यान मिताक्षरा में साफ-साफ लिख दिया हैं कि :
तत्रा त्रीणीज्यादीनि धर्मार्थनि त्रीणि प्रतिग्रहादीनि वृत्तयर्थानि। षण्णान्तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका। याजनाध्यापने चैव विशुध्दाच्च प्रतिग्रह: (10/16) इति मनुस्मरणात्, अत इज्यादीन्यवश्यंर् कत्ताव्यानि च प्रतिग्रहादीनि। द्विजातीनामध्यायनमिज्यादानं ब्राह्मणस्याधिका: प्रवचनयाजनप्रतिग्रहा: पूर्वेषु नियम: (10 अ.) इति गौतमस्मरणात्।
जिसका अर्थ यह हैं कि 'छह कर्मों में से यज्ञ, अध्यायन और दान ये तीनों धर्म के लिए और याजन, अध्यापन एवं प्रतिग्रह ये तीनों केवल जीविका (पेट पालने) के लिए हैं, क्योंकि मनुजी ने कहा हैं कि छह कर्मों में से विशुद्ध प्रतिग्रह आदि तो केवल जीविका के निर्मित्त हैं। इसलिए यज्ञ, अध्यायन और दान अवश्य करने चाहिए, न कि प्रतिग्रह वगैरह भी, क्योंकि गौतमस्मृति के दशम अध्याय में लिखा हैं कि द्विज मात्र के लिए यज्ञ, अध्यायन और दान ये तीन कर्म हैं, और ब्राह्मणें के लिए यद्यपि याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह भी हैं, तथापि उनका करना आवश्यक नहीं हैं, किन्तु यज्ञ आदि का ही।' यह मिताक्षरकार की सम्मति इस विषय में हैं।
हाँ, जीविका के लिए प्रतिग्रह कर सकते हैं। परन्तु सो भी आपत्काल में जब उछ, शिल, कृषि और वाणिज्यादि एक भी न हो सके जैसा कि आगे चलकर विदित होगा। इतने पर भी प्रतिग्रह के बाद प्रायश्चित अवश्य ही करना होगा। क्योंकि मनुस्मृति चतुर्थ अध्याय में लिखा हैं कि :

अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।
अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥ 190॥
अर्थात् 'जो ब्राह्मण वेदादि शास्त्रों को पढ़ने और तपस्या करने वाला नहीं हैं वह यदि प्रतिग्रह करे तो प्रतिग्रह के साथ ही उसका नाश वैसे ही हो जाता हैं जैसे पत्थर की नाव चढ़ने वाले के साथ डूब जाती हैं। इसका विशेष विचार फिर करेंगे। एक बात और भी विचारने योग्य हैं। वह यह कि किसी भी प्रसंग में सबसे प्रथम प्रधान वस्तु का ही नाम लिया जाता हैं, जैसे सभा में सभापति का इत्यादि। अब यदि इन षट् कर्मों के बतलाने वाले वाक्यों को देखते हैं तो सभी में प्रथम यजन, अध्यायन और दान के नाम आते हैं, पश्चात् याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह के। इतनी बात अवश्य हैं कि अध्यापन (पढ़ाना) तीन प्रकार के होते हैं। जैसा कि हारीतस्मृति के प्रथम अध्याय में लिखा हैं :
अध्यापनं च त्रिविधां धर्मार्थ मृक्थ कारणात्।
शुश्रूषाकरणं चेति त्रिविधां परिकीर्त्तितम्॥ 18॥
अर्थ यह हैं कि 'अध्यापन' तीन प्रकार के होते हैं, (1) धर्म के लिए, (2) सेवा कराने के लिए, (3) धन प्राप्ति के लिए। अत: प्रथम के दो अंशों को लेकर अध्यापन भी याजन (यज्ञ कराने) और प्रतिग्रह की अपेक्षा उत्तम हैं। इसीलिए कहीं-कहीं अध्यापन को भी प्रथम लिख देते हैं। जैसा कि-
अध्यापनमध्यायनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥-मनु
यदि यज्ञ भी केवल परोपकारार्थ कराया जाये न कि दक्षिणा लेकर, तो वह भी किसी प्रकार अच्छा कहा जा सकता हैं। अतएव कहीं-कहीं एकाध स्थल में उसका नाम भी प्रथम लिया हैं। जैसा कि हारीतस्मृति के प्रथम अध्याय में लिखा हैं :
अध्यापनमध्यायनं याजनं यजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माणीति प्रोच्यते॥ 18॥
परन्तु प्रतिग्रह का नाम तो कहीं भी प्रथम नहीं आया हैं। इसलिए वह महानिकृष्ट हैं। अध्यायन, यजन और दान इन तीनों में से भी अध्यायन (पढ़ना) सर्वोच्च हैं क्योंकि उससे परमात्मा के ज्ञान द्वारा मुक्ति मिल सकती हैं और शास्त्र एवं कर्मों के ज्ञान से यज्ञादि का अनुष्ठान भी हो सकता हैं। इसीलिए यज्ञ उससे मध्यम ठहरा, क्योंकि यह उसका फल हैं। यज्ञ में दान भी होता हैं और जप, हवन आदि भी। अतएव यज्ञ का एक भाग होने के कारण दान यज्ञ से भी मध्यम अर्थात् कनिष्ठ हुआ। इस तरह से ये अध्यायन, यज्ञ और दान उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ धर्म हैं। इसी से पूर्वोक्त श्लोकों में प्रथम अध्यायन, बाद यज्ञ और उसके अनन्तर ही दान का नाम आया हैं। इस प्रकार तीन प्रकार के धर्मों के हो जाने पर अब चौथे प्रकार का धर्म कहाँ से आ सकता हैं? क्योंकि संसार की सभी वस्तुएँ या तो उत्तम या मध्यम, अथवा कनिष्ठ इन तीनों ही प्रकारों की होती हैं। इसलिए जो धर्म होंगे उनका इन्हीं तीन अध्यायन आदि में अन्तर्भाव (मिलाव) करना होगा। परन्तु प्रतिग्रह वगैरह तो इन तीनों में से किसी में भी मिल नहीं सकते। अत: वे सब कर्म धर्म के लिए नहीं हो सकते। अतएव मनु भगवान् ने कहा हैं कि :
वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्।
वार्ता कर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु॥ 108॥
इसका तात्पर्य यह हैं कि ''ब्राह्मण के कर्मों में वेदाभ्यास सबसे उत्तम हैं। एवं क्षत्रिय के कर्मों में रक्षा करना और वैश्य के कर्मों में व्यापार सर्वश्रेष्ठ हैं। अर्थात् इस तीन ब्राह्मणादि वर्णों को क्रम से वेदाभ्यास आदि तीनों में विशेष ध्यान देना चाहिए''। अतएव अब इस शंका का भी अवसर न रहा कि यदि ब्राह्मण के भी तीन कर्म हैं और क्षत्रिय, वैश्य के भी तीन ही, तो फिर उनमें भेद ही क्या रहा? क्योंकि यद्यपि तीनों के लिए अध्यायन आदि समान ही धर्म हैं तथापि ब्राह्मण का प्रधान धर्म वेदाभ्यास हैं, क्षत्रियों का तीनों से अतिरिक्त रक्षा ही प्रधान धर्म हैं, एवं वैश्य का व्यापार। क्योंकि यदि क्षत्रिय रक्षक और वैश्य वाणिज्यकर्ता न हो तो विविध उपद्रव और धन की कमी से सब धर्म ही मिट्टी में मिल जाये। इसलिए क्षत्रिय और वैश्यों के लिए इन्हें ही प्रधान कर्म बतलाना बहुत ही युक्तिसंगत हैं और इन प्रधान कर्मों के भेद से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की परस्पर विलक्षणता हो गयी। दूसरी बात यह हैं कि यदि ये धर्मार्थक कर्म तीनों के समान भी हो जाये तो भी जीविका के कर्म तीनों के भिन्न-भिन्न हैं। अत: उन्हीं के भेद से तीनों का परस्पर भेद हो सकता हैं। क्योंकि ब्राह्मणों के ही लिए शिल, उछादि बतलाये गये हैं, न कि क्षत्रिय और वैश्यों के लिए भी वे जीविकाएँ हैं। बल्कि हमारी समझ में ऐसी शंका करना ही न चाहिए। क्योंकि हम लोग (सनातनधर्मानुयायी) जन्म से ही जाति-भेद मानते हैं, न कि कर्मों से। नहीं तो ब्राह्मण और क्षत्रियों की एकता न हो जाये इस डर से यदि ब्राह्मणों के षट् कर्म अवश्य माने जाये, तो यह पूछ सकते हैं कि अस्तु, यही बात रहे, परन्तु क्षत्रियों और वैश्यों में परस्पर भेद कैसे रहेगा? क्योंकि उन दोनों के लिए तो धार्मिक कर्म अध्यायन, यजन और दान तीन ही हैं। अत: ऐसी शंका करना अनभिज्ञता मात्र हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति के आचाराध्याय में भी लिखा हैं कि :
प्रधानं क्षत्रिये कर्म प्रजानां परिपालनम्।
कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विश: स्मृतम्॥ 119॥
अर्थात् ''क्षत्रिय का प्रधान कर्म प्रजारक्षण और वैश्य के प्रधान कर्म सूद पर रुपया देना, कृषि, वाणिज्य एवं पशुपालन हैं''। इसी जगह मिताक्षरा में लिखा हैं कि :
क्षत्रियस्य प्रजापालनं प्रधानं कर्म धर्मार्थं वृत्यर्थं च। वैश्यस्य कुसीदकृषिवाणिज्य
पशुपालनानि वृत्यर्थानि कर्माणि।
अर्थात् ''क्षत्रिय का प्रजापालन ही प्रधान कर्म हैं जो धर्म और जीविका दोनों के लिए हैं एवं वैश्य के सूद पर रुपये देने, कृषि, वाणिज्य और पशुपालन प्रधान कर्म हैं। इससे यह भी सूचित होता हैं कि कृषि वाणिज्यादि ब्राह्मणों के अप्रधान कर्म अवश्य हैं, हाँ वे प्रधान नहीं हो सकते यह दूसरी बात हैं। इन वाक्यों तथा गीता के 18वें अध्याय के 42, 43 और 44 श्लोकों में भी लिखे गये ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के धर्मों को देखकर मूर्ख से भी मूर्ख को यह शंका नहीं हो सकती कि ''ब्राह्मणों के तीन ही कर्म मानने से क्षत्रिय और वैश्यों से उनका भेद न रह जायेगा।'' इसलिए ब्राह्मणों को त्रिकर्मा कहना बहुत ही युक्ति-युक्त हैं, न कि जीविका के कर्मों को मिलाकर षट्कर्मा। क्योंकि ऐसी दशा में शतकर्मा या सहस्रकर्मा क्यों न कहना चाहिए? क्योंकि मनुस्मृति चतुर्थाध्याय के अनुसार, जैसा अभी जीविकार्थक कर्मों के प्रकरण में दिखलायेंगे, शिल, उछ, कृषि, वाणिज्य और सूद पर रुपये देने भी ब्राह्मणों की अनापत्ति काल की जीविकाएँ हैं। बल्कि प्रतिग्रह वगैरह ही आपत्ति काल की जीविकाएँ हैं, जैसा कि वहीं विदित होगा। एवं पुराण, इतिहास तथा पराशर आदि स्मृतियों और शिष्टाचारों द्वारा भी राज्य, कृषि सेनापति के कार्य और युध्दादि भी ब्राह्मणों के कर्म बतलाये जायेगे। यदि जीविका के कर्म भी परस्पर या धर्मार्थक माने जाये, तो स्नान तथा मल-मूत्रादि के त्याग प्रभृति भी उसी में आ जायेगे, जिससे बलात् षट्कर्मा मानने के बदले शत या सहस्र कर्मा मानना ही पड़ जायेगा। अत: यह निर्विवाद सिद्ध हैं कि वास्तव में ब्राह्मण त्रिकर्मा ही होते हैं, जैसे कि आजकल अयाचक (भूमिहार, पश्चिम, तगे या दान-त्यागी, महियाल, नागर, प्राय: कान्यकुब्ज और बहुत से पंक्तिबद्ध सर्यूपारी) ब्राह्मण पाए जाते हैं। अथवा यों कहना चाहिए कि सभी प्रान्तों में किसी-न-किसी नाम या रूप में त्रिकर्मा अथवा अयाचक ब्राह्मण पाए जाते हैं।
यदि षट्कर्मा ही मानने में आग्रह हो तो सच्चे षट्कर्मा क्यों नहीं मानते? जैसे कि अयाचक ब्राह्मण भी पाए जाते हैं। क्योंकि मनुजी ने चतुर्थाध्याय के प्रारम्भ में शिल, उछ, याचित, अयाचित, कृषि और वाणिज्य रूप छह जीविकाओं को ब्राह्मणों के निमित्ता गिनाकर कहा हैं कि :
षट्कर्मैको भवत्येषां त्रिभिरन्य: प्र्रवत्ताते।
द्वाभ्यामेकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रोण जीवति॥ 9॥
अर्थ यह हैं कि 'इन पूर्वोक्त चतुर्विधा ब्राह्मणों में कोई तो षट्कर्मा होता हैं अर्थात् पूर्वोक्त शिल, उ×छ आदि छह जीविकाएँ करता हैं, कोई प्रथम के शिल आदि तीन ही, कोई दो ही और कोई शिल और उ×छ में से एक ही करता हैं, इस वचन के अनुसार षट्कर्मा भी मानिये, हमें त्रिकर्मा ही मानने में आग्रह नहीं हैं। क्योंकि ये छह कर्म याचक और अयाचक ब्राह्मणों में समान ही हैं, किसी में कुछ भी कमी नहीं हैं।
अथवा पराशरस्मृति में कहे गये सन्ध्या-स्नान आदि छह कर्मों को जिनका वर्णन प्रथम कर चुके हैं जो केवल धर्मार्थक ही हैं, लेकर भी दोनों प्रकार के (अयाचक और याचक) ब्राह्मण षट्कर्मा कहे जा सकते हैं क्योंकि यह नियम भी हैं कि 'कलौ पाराशरा: स्मृता:' अर्थात् ''कलियुग में पराशरस्मृति में कहे गये धर्म ही माने जा सकते हैं, और उन्होंने स्पष्ट रूप से 'षट्कर्माणि दिने दिने' अर्थात् सन्ध्या-स्नानादि छह कर्म प्रतिदिन करने चाहिए'' ऐसा लिख दिया हैं। इसलिए इन धार्मिक षट् कर्मों को लेकर ही षट्कर्मा मानना बहुत ही उचित होगा जैसा कि दिखला चुके हैं। अत: अयाचक ब्राह्मण त्रिकर्मा या षट्कर्मा दोनों ही कहे जा सकते हैं और, साथ ही, अन्य ब्राह्मण भी। इस विषय का अवशिष्ट विवेचन अगले ग्रन्थ में चलकर होगा। उपसंहार में हम केवल इतना और कह देना चाहते हैं कि जब मनुजी स्वयं लिख देते हैं कि 'धर्मस्तु दानमध्यायनं यजि:' (10/79) अर्थात् 'धर्मार्थक अथवा स्वयं धर्म स्वरूप कर्म तो दान, यज्ञ और अध्यायन (पढ़ना) ये तीन ही हैं, तो फिर इस विषय में विवाद ही क्या हैं? क्या इनमें कुछ ऐसी विशेषता हैं कि क्षत्रियादि के लिए ये धर्म हो न कि ब्राह्मणों के लिए? क्या किसी विचारहीन के केवल कथन मात्र ही से प्रतिग्रह आदि भी अपने वास्तव कलुषित स्वरूप को (जैसा कि सभी जानते और मानते हैं) छिपाकर धर्म बन जायेगे? क्या लोग नहीं जानते हैं कि धर्म के नाम पर प्रतिग्रह लेना केवल फिर से धोने के लिए पंक में पाँव को घुसेड़ना हैं और धर्मशास्त्रकार चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें रोकते हैं कि ऐसा न करो? क्या कोई भी विचारवान् और नैष्ठिक ब्राह्मण प्रतिग्रह को उचित समझता हैं?
इस विषय में एक बात ओैर कहकर इस प्रकरण की समाप्ति और जीविकार्थक कर्मों के विचार के प्रकरण का आरम्भ करेंगे। वह यह कि अध्यापन (पढ़ना), याजन (यज्ञ कराना) आदि कर्म काम्य हैं, अर्थात् इच्छा रहने पर ही किये जा सकते हैं। परन्तु अध्यायन (पढ़ना) आदि तो नित्य हैं, अर्थात् उनके करने की इच्छा न रहने पर भी उन्हें करना ही पड़ेगा। इसीलिए अध्यापन आदि करने के लिए शास्त्र बाधित नहीं कर सकता, बल्कि अपनी इच्छा के अनुसार ही लोग उसे कर सकते हैं या नहीं। क्योंकि काम्य कर्मों से यथानुष्ठान-शक्ति का नियम हैं, जिसका तात्पर्य यह हैं कि जिस काम्य कर्म करने की इच्छा हो उसके सांगोपांग अनुष्ठान और प्रायश्चित्त वगैरह करने की शक्ति यदि हो तो उसे करे, नहीं तो उसे न करे। परन्तु नित्य कर्मों को तो अवश्य करना ही होगा। इसलिए उनके विषय में यथाशक्त्यनुष्ठन का नियम हैं; जिसका भाव हैं कि नित्य कर्मों को जीवनपर्यन्त करना आवश्यक हैं। परन्तु जीवन-भर सब अंगों सहित करने की शक्ति नहीं रह सकती क्योंकि जरावस्था में स्नान या प्राणायाम आदि नहीं कर सकते। इसलिए प्रधानकर्म को न छोड़कर उसके करते हुए स्नान प्रभृति उसके अंगों को यथाशक्ति करना चाहिए। इसीलिए यद्यपि नित्य और काम्य दोनों प्रकार के कर्मों के फल होते हैं, तथापि दोनों में भेद होता हैं। इसी बात को श्री पार्थ सारथि मिश्र ने अपने मीमांसा ग्रन्थ 'न्यायरत्नमाला' में इस प्रकार लिखा हैं कि :
काम्ये तु निमित्तावाक्यस्य कश्चिद्विरोधो नास्तीत्यंगान्य पेक्षितान्युपसंहियन्ते इति निखिलांग युक्तस्यैव प्रयोग:, नित्ये तु यथोक्तन्यायेनांगानां यथाशत्क्युपसंहार इति॥
तात्पर्य यह हैं कि जब कि काम्यकर्मों के सांगोपांग का ही अनुष्ठान करने में किसी भी निमित्त के साथ कोई विरोध नहीं हैं, (क्योंकि जीवन रूपं निमित्त तो वहाँ हैं ही नहीं, कि जीवन-भर अंगों के न कर सकने से विरोध होगा, और कामना रूप निमित्त तो आवश्यक नहीं हैं, क्योंकि यदि सांगोपांग कर्म को नहीं कर सकते तो कामना को छोड़ भी सकते हैं) इसलिए सभी अपेक्षित अंगों को करना ही पड़ता हैं, न कि उन्हें छोड़कर भी। परन्तु नित्य कर्म तो पूर्वोक्त प्रकार से जीवन-भर सब अंगों सहित लोग नहीं ही कर सकते हैं; अंगों के लिए प्रधान कर्म का भी त्याग उचित भी नहीं हैं और जीवन रूप निमित्त अपरिहार्य हैं। अत: वहाँ यथाशक्ति ही अंग किये जाते हैं। इससे तो स्पष्ट ही हैं कि अध्यापन आदि कर्म उसी दशा में किये जा सकते हैं, जब उनके करने की सामर्थ्य और कामना हो, न कि उनके करने के लिए शास्त्र अवश्य बाधित कर सकते हैं। जैसा कि स्वामी चित्सुखाचार्यजी अपने 'चित्सुखी' (तत्त्व प्रदीपिका) ग्रन्थ में स्पष्ट ही लिख दिया हैं कि :
किंच तमध्यायपयीतेति च नायमध्यापने विधिर्वृत्तयर्थत्वेनाध्यापनस्य याजनवत्, प्राप्तत्वात् उक्तं हि षण्णांतु कर्मणामस्य त्रीणिकर्माणि जीविका। याजनाध्यापने चैव विशुध्दाच्च प्रतिग्रह इति, तस्मात् यथैतयान्नाद्यकामं याजयेदित्यादिषु याजनं न विधीयते, किन्त्वेतयान्नाद्यकामो यजेतेति वाक्यार्थस्तथेहाप्यवर्षो ब्राह्मण उपगच्छेत्, सोधीयीतेति वाक्यार्थ: स्वीकार्य इति॥
इसका अर्थ यह हैं कि 'अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपयीत तमध्यापयीत' इस श्रुति में उपनयन संस्कार करवाने और पढ़ाने की आज्ञा नहीं हैं, क्योंकि जैसे यज्ञ करवाना जीविका हैं, इसलिए उसका करना लोगों के लिए स्वत: (आप ही आप) सिद्ध हैं, न कि उसके लिए शास्त्रज्ञा की आवश्यकता हैं, वैसे ही अध्यापन (पढ़ाना) भी जीविका के ही लिए हैं, क्योंकि मनुजी ने कहा हैं कि छह कर्मों में से अध्यापन आदि तीन कर्म तो केवल ब्राह्मणों की जीविकाएँ हैं। इसलिए जैसे 'एतयान्माद्यकामं याजयेत्' इस श्रुति में यह आज्ञा नहीं हैं कि अन्नादि चाहने वाले से 'अवेष्टि' नामक यज्ञ करवावे, क्योंकि यज्ञ करवाना तो बिना कहे ही सिद्ध हैं, किन्तु वहाँ यज्ञ करने की ही आज्ञा हैं कि अन्नादि चाहने वाला 'अवेष्टि' नामक यज्ञ करे, यज्ञ करवाने की आज्ञा केवल ऊपर से प्रतीत मात्र ही होती हैं। उसी प्रकार यहाँ भी यही आज्ञा हैं कि 8 वर्ष का ब्राह्मण गुरु के पास जाये और विद्या पढ़े, न कि गुरुओं के लिए पढ़ाने की आज्ञा हैं, वह तो प्रतीत मात्र होती हैं।
इसी 'चित्सुखी' ग्रन्थ की टीका 'नयनप्रसादिनी' में उसी जगह स्पष्ट शब्दों में लिख दिया हैं कि :
यथाहि न तावद्यथाश्रुति याजनं विधातुं शक्यं वृत्तयर्थ त्वेन तत्रा स्वत: एवप्रवृत्तात्वात्, अतो प्राप्तप्रयोज्यरूपसाक्षात् कर्तृव्यापारयागपरो विधिस्तथेहाप्यन्तो प्राप्तप्रयोज्यमाण वकव्यापारावुपगमनाध्यायने विधीयेते इत्यर्थ:॥
जिसका अर्थ यह हैं कि जैसे 'अवेष्टि यज्ञ करवाने की आज्ञा नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो जीविका हैं, इसलिए बिना कहे ही उसे लोग कर सकते हैं। किन्तु यज्ञ करने की ही वहाँ आज्ञा हैं। ठीक वैसे ही गुरु को अपने पास विद्यार्थी लाने और उसके पढ़ाने की आज्ञा शास्त्रों में नहीं दी गयी हैं। क्योंकि बिना शास्त्राज्ञा के ही गुरु लोग ऐसा करने में जीविका के लिए तत्पर होते हैं, किन्तु विद्यार्थी स्वयं गुरु के पास जाये और पढ़े, यही वेद की आज्ञा हैं। क्योंकि ऐसी आज्ञा के बिना कोई पढ़ नहीं सकता, जबकि हजार शास्त्राज्ञा के होते भी शास्त्र का पढ़ना दु:साध्य हो रहा हैं। पढ़ाना जीविका हैं इसे तो बहुत अच्छी तरह दिखला चुके हैं।

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