गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार-1


॥श्रीगणेशाय नम:॥

गता गीता शास्त्रां क्वचिदपि पुराणं व्यपगतम्।
विलीना: स्मृत्यर्था निगमवचनं दूरमगमत्॥
इदानीं रैदासप्रभृतिवचनान्मोक्षपदवी।
न जाने को हेतु: शिव शिव कलेरेष महिमा॥ 1॥
विद्वांसी मत्सरग्रस्ता: प्रभव: स्मयदूषिता:॥
अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम्॥ 2॥

आजकल का समय बहुत ही विलक्षण हैं। जिधर दृष्टिपात करिए उधर ही विचित्र लीलाएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं। 'अपनी-अपनी डफली और अपनी-अपनी गीत' की ध्वनि, जिधर आँख उठाइये और कांन दीजिए, उधर ही गूँज रही हैं। सभी लोग डेढ़ चावल की खिचड़ी पका रहे हैं। जो बात सामने आती हैं उसी का चटपट मनमाना फैसला कर देना प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक साधारण बात हो रही हैं। सभी अपनी-अपनी उच्छृंखल और अनिश्चयपूर्ण सम्मति, हर बात में, देने को लालायित हो रहे और दे रहे हैं। जिसके मन में जो ही धुन समाई उसने चट लेखनी उठाई और उसे ही लिख मारा। जानने को तो संस्कृत का काला अक्षर भैंस बराबर, परन्तु बड़ी-बड़ी व्यवस्थाएँ लिखी जाने लगी हैं। कोई तो अंग्रेजी की दो-चार किताबें पढ़ चट धर्म तथा जाति-पाँति के निर्णय करने का बीड़ा उठा लेता हैं और कोई थोड़ा-सा केवल ज्योतिष, व्याकरण अथवा काव्यादि ही पढ़कर पूर्वोक्त विषयों में मनमानी बकने लगता हैं। आजकल की बड़ी-बड़ी समस्याएँ शीघ्र बोध और मुहूर्तचिन्तामणि से ही हल होती हैं। पुराणों के आधार पर बड़े-बड़े तान टूटते हैं, परन्तु पुराणों में उनकी गन्ध भी नहीं हैं। कितने ही नूतन काल्पनिक पुराणों की रचनाएँ और तान्त्रिक तथा पौराणिक ग्रन्थों के नाम पर दो-चार श्लोकों का जिस किसी विषय में लिख देना ही आजकल के प्रखर पाण्डित्य का प्रतिफल हैं और इसी टट्टी की ओट में शिकार खेलकर अपने दिल की पुरानी कान निकाली जाती हैं, बाप-दादों के बदले चुकाये जाते हैं। इतना ही नहीं, इन्हीं कल्पित श्लोकों और दोहे-चौपाइयों के आधार पर दूसरे ग्रन्थ बनाये जाते हैं, ओैर उन्हीं के आधार पर तीसरे इत्यादि। वाह रे मानसिक प्रसादकल्पना! बस अब क्या हैं; इन्हीं कल्पित पोथी को लेकर पण्डित से मूर्ख तक सब विषयों की व्यवस्थाएँ करने लग जाते हैं। क्या कहें, पढ़े-लिखे संसार में ही अन्धेर मच रही हैं। चाँदनी रात में भी डाके पड़ना यह विचित्र और अघटित घटना आज देखने में आ रही हैं। जिस समाज के लोग आजकल के जैसे चार अक्षर पढ़े-लिखे भूत नहीं हैं उसकी तो दुर्दशा हैं; उसके लिए तो 'अन्धो की गैया राम रखवैया' की बात हैं। सुना करते थे कि सरकारी बन्दोबस्त के समय चतुर जमींदार सैकड़ों वर्ष के अनपढ़ और सीधे-सादे काश्तकारों को शिकमी लिखा लिया करते थे, या करते हैं। परन्तु वह बात तो आज जाति-पाँति निर्णय के विषय में आँखों देखी जा रही हैं। पाठकों को उदाहरणार्थ'वर्ण विवेक चन्द्रिका' नामक चार पन्ने की पुस्तक का तत्त्व दिखलाते हैं। उसमें लिखा हैं कि''पुराणं शूकराख्यं वै तंत्रां भुवलसंज्ञकम्। विलोक्य जातिबोधाय रच्यते वर्णचन्द्रिका॥ 2॥'' इसका अर्थ यह हैं कि 'शूकर (वराह) पुराण और भुवलतन्त्र को देखकर जातियों का ज्ञान होने के लिए, वर्ण (विवेक) चन्द्रिका नामक ग्रन्थ बनाता हूँ। परन्तु यदि ग्रन्थकर्ता महाशय के बताये हुए बारह पुराण को देखिये तो उसमें जाति-विचार का गन्ध भी नहीं हैं, निरूपण तो दूर रहा। जिसको इसकी जाँच करनी हो, वह अन्यत्रा मुद्रित तथा 'एशियाटिक सोसाइटी' कलकत्ता मुद्रित पुस्तक का अवलोकन करे। उसमें प्रत्येक अध्याय के विषयों का पृथक् सूची पत्र भी दिया हुआ हैं और सम्पूर्ण पुराण का सारांश प्रति अध्याय के विषय सूचन द्वारा संक्षिप्त गद्यात्मक संस्कृत के 60 या 70 पृष्ठों में लिखा हुआ हैं। पं. ज्वाला प्रसाद का 'पुराणदर्पण' देखने से भी शीघ्र ही उक्त पुराण के विषयों का ज्ञान हो सकता हैं, और आद्योपान्त पुस्तक देखने से तो शंका भी नहीं रह सकती हैं। यह तो हुई महाशयजी के बताये पुराण की कथा। अब दूसरे आधार 'भूवल तन्त्र' को देखिये। प्रथम तो यह नाम ही विचित्र हैं। क्योंकि स्व भु शब्द वाला नाम अप्रसिद्ध हैं। यदि 'भूवल' ऐसा नाम हो तो 'बृहज्जोतिषार्णव' ग्रन्थन्तर्गत पृथ्वी निरूपण प्रकरण में तीन ग्रन्थ इस तरह के मिलते हैं-
(1) भूगोल वर्णनाध्याय,
(2) भूवल निरूपणाध्याय,
(3) मानध्याय गणित नाममालाध्याय।
परन्तु इन तीन ग्रन्थों में जातिनिरूपण प्रसंग ही नहीं। इस बात को लोग क्रमिक तीनों नामों, प्रसंग तथा ग्रन्थ नाम से भी अच्छी तरह समझ सकते हैं। साथ ही, यह भी याद रखना चाहिए कि ग्रन्थकर्ता ने जाति विषयक दो प्रकरण अलग ही बनाये हैं-
(1) ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड, (2) वर्णशंकरजातिनिरूपण।
यदि ऐसा कहा जाये कि इस नाम का कोई तन्त्र ग्रन्थ हैं सो भी ठीक नहीं मालूम होता। क्योंकि मिथिला तथा अन्य देशीय बड़े-बड़े पण्श्निडतों और तान्त्रिकों से पूछने पर भी इस नाम के तन्त्र ग्रन्थ का पता न लगा। मुद्रित तन्त्र ग्रन्थों में तो इसका नाम भी नहीं हैं। क्योंकि मुद्रित तन्त्र ग्रन्थ ये हैं-
(1) आश्चर्य योग रत्नमाला, (2) आसुरीकल्प, (3) इन्द्रजाल, (4) उड्डीश,
(5) काम रत्न, (6) क्रियोड्डीश, (7) गुप्तसाधन, (8) गौतम, (9) गन्धोत्ताम-निर्णय, (10) दत्तात्रोय, (11) धन्वन्तरितन्त्र शिक्षा, (12) महानिर्वाण, (13) मन्त्रमहार्णव, (14) मन्त्रमहोदधि, (15) माहेश्वरी, (16) मेरु, (17) योगिनी, (18) योगमाला, (19) वन्धया, (20) सिद्धशंकर इत्यादि।
इनके अतिरिक्त 'एशियाटिक रिसर्चेज' (Asiatic Researches) नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में, जो सन् 1801 ई. में छपा हैं, हिन्दू जातियों के निरूपण प्रकरण के पृष्ठ 62 में कुछ तन्त्र ग्रन्थों के नाम 'दुर्गामहत्त्व' नामक तन्त्र ग्रन्थ के आधार पर गिनाये हैं, जिसका भावार्थ यह हैं कि (1) काली, (2) मुण्डमाला, (3) तारा, (4) निर्वाण, (5) सर्वरसरण, (6) वीर, (7) शृंगार्चन, (8) भूत, (9) उड्डीशान, (10) कालिकाकल्प, (11) भैरवी तन्त्र,(12) भैरवीकल्प, (13) तोडल, (14) मातृबृहदच, (15) मायातन्त्र, (16) वीरेश्वर, (17) विश्वेश्वर, (18) समय तन्त्र, (19) ब्रह्म यामल, (20) रुद्र यामल, (21) शंकर यामल, (22) गायत्री, (23) कालिकाकुलसर्वस्व, (24) कुलार्णव, (25) योगिनी तन्त्र, (26) महिषमर्दिनी। हे भैरवि! यही तन्त्रग्रन्थ सर्वसाधारण में प्रचलित हैं। इनके अतिरिक्त तन्त्र ग्रन्थों का पता नहीं चलता। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जाति निरूपण का जहाँ कहीं प्रसंग आया हैं, चाहे संस्कृत, हिन्दी अथवा अंग्रेजी ग्रन्थों में, वहाँ केवल रुद्र यामल का ही लोग नाम लेते हैं। इससे यही स्पष्ट झलकता हैं कि जैसे बारहपुराण का नाम ग्रन्थकर्ता महाशय ने झूठ-मूठ लिया हैं वैसे ही या तो तन्त्र ग्रन्थ का कल्पित नाम रख दिया हैं, अथवा यदि ऐसा ग्रन्थ कहीं पर्वतादि के गुफाओं में मिले भी तो उसमें जाति का विचार नहीं हैं। उसका नाम यों ही धोखा देने के लिए लिया गया हैं। सबसे बड़ी बात तो यह हैं कि 'वर्णविवेक चन्द्रिका' बहुत ही अल्पकाल हुए वेंकटेश्वर प्रेस में छपी हैं। यदि ग्रन्थकार को अन्य ग्रन्थों का प्रमाण देना था, तो उनके अध्याय आदि का तो नाम, कम से कम, दे देते। क्योंकि आजकल की प्रथा ऐसी ही हैं। परन्तु उन्हें तो लोगों को भुलावा देना था, इसलिए तन्त्र ग्रन्थ का नाम लिया। क्योंकि वे आजकल प्राय: अप्रचलित हैं, इसलिए झुठाई का पता न लगेगा। परन्तु यदि इस प्रकार से लिखना हो तो जिस किसी के भी विषय में तन्त्रादि के नाम से बहुत से कल्पित श्लोक आदि कहे जा सकते हैं, जिससे हाहाकार मचने के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता हैं। ऐसे ही स्वार्थन्धा और दुर्बुद्धि महाशयों ने पुराण आदि का नाम भी बदनाम कर दिया हैं। अत: उधर से लोगों को अश्रद्धा होने लग गयी हैं। अस्तु, इसी 'वर्ण-विवेकचन्द्रिका' के आधार पर पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र ने 'जातिनिर्णय' नाम का ग्रन्थ बनाया हैं। या यों कहना चाहिए कि भाषा में उसकी टीका करके कुछ ईधर-उधर से उसमें पैबन्द लगा दिया हैं। उस ग्रन्थ में आप बहुत जगह लिखते हैं कि 'इति वर्णविवेकचन्द्रिका'। क्या वर्णविवेकचन्द्रिका भी कोई आर्ष ग्रन्थ हैं जिससे वह भी स्वतन्त्र प्रमाण मानी जाये? तो फिर कबीर साहब की सखी और दादू साहब की बानी तथा गुलब कावली आदि को भी क्यों न मानेंगे? बल्कि बाइबिल और कुरान को भी मानकर जाति-पाँति को ही धो देना चाहिए। यदि संस्कृत श्लोक या गद्यों ही पर अन्धाविश्वास हो तो बाइबिल आदि का भी संस्कृत अनुवाद सन्तोष के लिए मिल सकता हैं। जातिनिर्णय ग्रन्थ को बनाकर विद्यावारिधिजी ने अपनी विद्यावारिधिता का खूब ही परिचय दिया हैं! यदि वर्णविवेकचन्द्रिका के श्लोकों को पुराणादि के वाक्यों द्वारा प्रमाणित कर देते तो और भी आपका यश नभोमण्डल में छा जाता। परन्तु दुर्भाग्य हम लोगों का कि वारिधि मिलने पर भी प्यासे ही रहना पड़ा! वारिधिजी की ज्वाला का विशेष परिचय आगे इस ग्रन्थ में ही कराकर आपका तथा वर्णविवेक चन्द्रिकाकार का विशेष परिचय वहीं देंगे। दूसरी पोथी 'भूमिहारोत्पत्ति' नाम की लक्ष्मीवेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई में छपी हैं, जिसके अन्त में लिखा हैं कि 'इति श्रीस्कन्दपुराणे पाताल खण्डे धर्मारण्यमहात्म्यवर्णने भूमिहारोत्पत्ति वर्णनं नामैकादशोध्याय:'। बस, अब क्या हैं, लोग देखते ही समझेंगे कि जिस विषय में ग्रन्थ और उसके अध्याय आदि तक लिखे हुए हैं उस विषय की पोथी कब झूठी हो सकती हैं? परन्तु यदि स्कन्दपुराण में ऐसी पंक्ति 11वें अध्याय में या अन्यत्र देखकर कोई इस ग्रन्थ की सत्यता की परीक्षा करना चाहे तो सिवाय पोल खुलने के और कुछ हाथ न लगेगा। प्रथम तो प्राचीन हस्तलिखित स्कन्दपुराण में इन सब विषयों का जिक्र ही नहीं हैं। वहाँ तो धर्मारण्यखण्ड में अथवा ब्रह्मखण्ड में प्रदोष, शिवरात्रि आदि का निरूपण हैं। रह गयी स्कन्दपुराण के नाम से वेंकटेश्वर प्रेस में छपे पुराण की बात। उसके भी 10वें अध्याय में गोभुज बनियों का वर्णन तो अवश्य हैं। परन्तु न तो उसमें कहीं भूमिहार शब्द ही आया हैं ओैर न इस विषय का कुछ पता ही हैं और अन्त में ऐसा भी नहीं लिखा हैं जैसा कि इति श्रीस्कन्दपुराणे' इत्यादि ऊपर दिखला चुके हैं। साथ ही, उसमें भी जो बहुत से कुचर इत्यादि शब्द और श्लोक मिलाकर मनमाना अर्थ किया हैं, उसका पर्दा उखेड़ प्रसंगवश पुस्तक में ही करके ग्रन्थकार का पूर्ण परिचय देंगे। ऐसा ही 'जगतराय दिग्विजय' नामक ग्रन्थ में भी बिना प्रसंग के ही झूठ-मूठ कुछ लिख मारा हैं, क्योंकि जिस 'जगतराय' का दिग्विजय उसमें वर्णित हैं वह कोई ऐसा प्रतापी राजा नहीं हुआ हैं, जिसके यहाँ काशिराज मिलने को गये थे। और जो तिथि जगतराय के काशी में आने की उसमें लिखी हैं उस समय काशी में कोई हिन्दू राजा ही नहीं था। इस बात को ग्रन्थ में ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा दिखलाकर उस ग्रन्थ के वाक्यों की भी कठिन समालोचना की जायेगी। अन्त में मैं दो-एक हिन्दी के ऐतिहासिक ग्रन्थों का दिग्दर्शन कराकर इस विषय को ही यहीं आगे के लिए छोड़ना चाहता हूँ। पहला ग्रन्थ 'विशेनवंश वाटिका' नाम का हैं जो खङ्गविलास प्रेस में 1887 में छपा हैं। इसके विषय में इस जगह मुझे यही कहना हैं कि उस ग्रन्थ के नाम पर ग्रन्थकर्ता को केवल अपनी योग्यता की नोटिस देनी थी, क्योंकि ग्रन्थ के टाइटिल पेज पर आपने अपने सारे विशेषण लिखे थे ही, फिर उन्हीं की आवृत्ति 90वें पृष्ठ से लेकर प्राय: दो परिच्छेदों में की। परन्तु जब उससे भी सन्तोष न हुआ तो पुस्तक के अन्त में भी अपनी प्रशंसा की बहुत सी सनदें पेश कर डालीं। दूसरी बात यह हैं कि आप उसी पुस्तक के 45-46 पृष्ठों में लिखते हैं कि ''शंकर दिग्विजय से स्पष्ट जाना जाता हैं कि मयूरभट्ट ही के समय में शंकराचार्य भी उत्पन्न हुए थे और शंकराचार्य को एक हजार वर्ष से कम न हुए, इसी से मयूरभट्ट के भी समय का अनुमान किया जा सकता हैं।'' और फिर 53 से 55 पृष्ठ तक मयूरभट्ट से लेकर 114 राजाओं की वंशावली लिखी हैं और इस विषय में ईलियट साहब की भी सम्मति पृष्ठ 49 में दिखलाई हैं कि 'वर्तमान राज्यकर्ता मयूरभट्ट से 115 पीढ़ी में हैं।' पाठक इस जगह ही ग्रन्थकर्ता महाशय की सुबुद्धि का पता लगाकर सम्पूर्ण ग्रन्थ की बातों की सच्चाई-झुठाई समझ सकते हैं। बात यह हैं कि मयूरभट्ट से आज तक 115 राजाओं को गिना कर भी उनका समय 1000 वर्ष बताना, या उसे बताकर उन राजाओं को गिनाना उनकी अलौकिक बुद्धिमत्ता का फल नहीं तो और क्या हो सकता हैं? नहीं मालूम कि ग्रन्थ लिखने के समय दिमाग आकाश में चक्कर लगा रहा था या और कहीं गया था। ऐसी दशा में उनकी पवित्र लेखनी से जो कुछ भी न लिखा गया हो उसी में आश्चर्य हैं। एक जगह आप लिखते हैं कि ''यह महाशय (मयूरभट्ट) उसी ऋषिकुल के हैं, जिस ब्रह्मवंश में द्रोणाचार्य, भीष्माचार्य और रामाचार्य हुए। वाह-वाह क्या ही बुद्धिमत्ता हैं? मयूरभट्ट वत्सगोत्री भृगु, वत्स, च्यवनादि के वंश में हो सकते हैं। परन्तु द्रोणाचार्यजी का भरद्वाज गोत्र था, क्योंकि महाभारत, आदि पर्व 168वें अध्याय में भरद्वाज से घृताची अप्सरा द्वारा उनकी उत्पत्ति लिखकर लिखा हैं कि 'वनन्तु प्रस्थितं रामं, भरद्वाजसुतोब्रवीत। आगतं वित्ताकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजोत्ताम॥ 9॥ अर्थ यह हैं कि 'जब परशुरामजी पृथ्वी नि:क्षत्रिया करके उसे कश्यपादि ब्राह्मणों को देकर वन जाने लगे तब भरद्वाज के पुत्र ने उनसे जाकर कहा कि हे द्विजोत्ताम! मैं द्रोण हूँ और धन की इच्छा से आया हूँ।' फिर दोनों एक कुल के कैसे हुए? उस पर भी तुर्रा यह हैं कि उसी वंश में क्षत्रिय वंशोद्भव भीष्म पितामह तथा श्रीरामजी को भी आप लिख रहे हैं। वाह-वाह क्या ही अच्छा शास्त्र तथा व्यवहार का परिशीलन हैं। एक जगह आप लिखते हैं कि यद्यपि मिस्टर ईलियट के कथनानुसार मझौली राज्य मयूरभट्ट ने ही प्राप्त किया। परन्तु पुराने कागजों में विशेन का ही प्राप्त करना सिद्ध होता हैं। तथापि यह विरोध ऐसा नहीं हैं जिससे अर्थभंग हो। एक तो आपको ऐसी दशा में, जबकि प्रबल इतिहासज्ञ अंग्रेज के साथ विरोध पड़ता हैं तो जैसे ग्रन्थन्त में आपने अपनी सनदें पेश की हैं वैसे ही उस कागजी प्रमाण को भी लिख देना था। क्योंकि आपके निज के सर्टिफिकेट से वह अधिक उपयोगी हैं। परन्तु आपके पास तो कुछ हैं नहीं। केवल जगह-जगह कागजी प्रमाण कहकर लोगों को डरवाते और श्रध्दा पैदा करना चाहते हैं। दूसरे यदि ऐसे विरोध से ऐतिहासिक अर्थ का भंग नहीं तो आप भंग मानते हैं किससे? एक दूसरे से बिलकुल विरुद्ध कहे और फिर भी अर्थ भंग नहीं? बस, इसे यहीं रहने देते हैं। अवशिष्ट वक्तव्य प्रसंगवश आगे प्रकाशित करेंगे। क्योंकि बुद्धिमान इतने ही से उस ग्रन्थ की बातों का तत्त्व जान गये होंगे। दूसरा ग्रन्थ निरंजन मुखोपाध्याय रचित 'भारत वर्षीय राजदर्पण' हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ की बातों का खण्डन आगे करेंगे। परन्तु उसका परिचय इसी जगह करा देना उचित होगा। ग्रन्थावलोकन से यह स्पष्ट झलकता हैं कि उसका लेखक काशीराज का निपट द्रोही था। अतएव जिस किसी ग्रन्थ में भी उनकी प्रशंसा की बात लिखी गयी हैं वह चाहे कितनी ही सत्य क्यों न हो, उस पर आक्षेप करना उसका मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता हैं। बनारस सूबे के इतिहास का जो प्रथम खण्ड आयरलैण्ड के इनवर्नेस प्रदेश में छपा हैं और जिसके प्रत्येक पृष्ठ में हर बातों पर सरकारी कागजों का नोट दिया हुआ हैं, उसके विषय में यदि कुछ भी बुद्धि न चली हैं तो भूमिका पृष्ठ 4 में लिख दिया हैं कि महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह ने अपने वंश को बढ़ाकर लिखवाने के लिए उसे छपवाया हैं और कहीं-कहीं वार्न हेस्टिग्ज के समय के कागजों से उसको प्रमाणित करने की चेष्टा की गयी हैं। यह लेख कहाँ तक सत्य हैं वह उस पुस्तक के देखने से विदित हो जायेगा। फिर आगे भूमिका पृष्ठ 5 में आप लिखते हैं कि ''जब से मनसा राम मझवा ग्राम के पहलवान सिंह की नौकरी छोड़कर आधे ग्राम के चतुर्थांश के एक अंश की मलिकाई से ऊँचे दर्जे पर चढ़े, तब से उन्होंने और उनके वारिसों ने सब तरह से स्वाधीन राजाओं के माफिक इज्जत के लिए कोशिश की हैं लेकिन उसे सरकार ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने कभी मंजूर नहीं किया हैं।'' देखिये, इन कलुषतापूर्ण शब्दों से कैसा द्वेष झलकता हैं? विवेकी ऐसे शब्दों का प्रयोग कभी नहीं कर सकते। ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने इसको कभी स्वीकार नहीं किया हैं, यह कहना तो उन्हीं महाशय को शोभा देता हैं। क्योंकि यदि गवर्नमेण्ट उसे न मानती तो द्विजराज महाराज काशीराज को स्वतन्त्र क्यों कर देती? हाँ, जब तक महाराज ने न चाहा था तब तक गवर्नमेण्ट को इससे मतलब ही क्या था कि उनको स्वतन्त्र राजा कहती फिरे? उसी जगह आपने फिर लिखा हैं कि 'वार्न हेस्टिंग्ज ने भी राजा चेतसिंह के साथ बराबर वैसा ही बर्ताव किया था जैसा जमींदार के साथ करना चाहिए।'' परन्तु जब आपने राजा चेतसिंह के बारे में कौंसिल में वार्न हेस्टिंग्ज द्वारा कही हुई बातों का पृष्ठ 21 में उल्लेख किया हैं तो वहाँ लिखते हैं कि हेस्टिंग्ज साहब ने कहा कि राजा के साथ एक निरूपित मालगुजारी पर इस्तमरारी बन्दोबस्त किया जाये और उनके इलाकों के तमाम अख्तियार उन्हें दे दिये जाये जिसमें किसी तरह से पीछे उस पर दस्तन्दाजी करने का अख्तियार न रह जाये और इलाके में रेजीडेण्ट भी न रहे। वे कम्पनी को पटने के इलाके में मालगुजारी दाखिल किया करें। क्योंकि रेजीडेण्ट मोकर्रर होने से वे राज्य और राजा पर अपना अख्तियार जारी करने की कोशिश करेंगे ओैर उनमें राजा के साथ उनका विवाद होकर कौंसिल में हमेशा नालिश आया करेगी, जिसमें रेजीडेण्ट की बात में नि:स्सन्देह विश्वास करके राजा के विपक्ष में सब फैसला होयेगा और पश्चात् एतद् द्वारा उनका सब नुकसान करके उनको साधारण जमींदार की अवस्था में घटा ले आयेगा। साथ ही, आप राजा चेतसिंह की सनद पेश करते हुए उनके दीवानी आदि के अधिकारों को भी स्वीकार करते हैं। फिर यह लिखना कि वार्न हेस्टिंग्ज का व्यवहार उनके साथ साधारण जमींदारों का-सा था कितनी बड़ी धृष्टता और द्वेष का फल हैं? आप सुबहान अली के बलवन्तनामे की निन्दा करते हैं, क्योंकि उससे काशीराज के महत्त्व की सूचना होती हैं। इसीलिए उस पर दिलोजान से रंज हैं। परन्तु खैरुद्दीन के बलवन्तनामे की आपने खूब प्रशंसा की हैं और उसे प्रामाणिक भी ठहराया हैं। तो भी कई जगह उसके भी विरुद्ध लिख कर काशिराज की निन्दा करने से न हटे। दृष्टान्त के लिए हम रुस्तम अली के मामले को उपस्थित करते हैं। पृष्ठ 6 में आप लिखते हैं कि ''सन् 1734 ई. में जब अवध के नवाब ने रुस्तम अली पर खफा होकर उन्हें बनारस से निकालने के लिए अपने नायब सफदरजंग को भेजा, तो रुस्तम अली ने मनसाराम को अपनी तरफ से उनको मनाने के लिए जौनपुर भेजा। परन्तु मनसाराम ने अपने मालिक के साथ दगाबाजी करके सफदरजंग के पास से बनारस, जौनपुर और चुनार के परगने अपने बेटे बलवन्त सिंह के नाम बन्दोबस्त करवा लिये' इत्यादि। अच्छा, अब खैरुद्दीन के बलवन्तनामे को देखिये, जो गवर्नमेण्ट प्रेस, प्रयाग में 1875 ई. में छपा हैं। उसके 8 और 9 पृष्ठों में लिखा हैं कि
 “However, in 1150 Hijree, being summoned by the Emperor Mahomed Shah to Delhi, he went, leaving his son-in-law, Nawab Abdul Munsur Khan, as his deputy. The enemies of Roostum Alee, finding this an opportunity, poured their complaints and accusations into the ears of Sufdar Jung , asserting that Roostum Alee paid no attention to state business, but spent all his time in persuit of pleasure; that he entertained enmity towards the servants of the state and meditated encroachment on the prerogative of Meer Murtaza; and thus they succeeded in causing Sufdar Jung to mistrust him. When Nawab Abdul Munsur Khan got wind of these accusations, he became greatly irritated and at once started from Fyzabad to infict chastisement. When he had reached Jaunpore, the wellwisher of Roostum Alee, who always had a spite against Munsaram, insinuated that he was the originator of all this ill-feeling; that openly he professed friendship but in his heart was contriving schemes to injure; and that he it was who had excited Sufdar Jung against him (Roostum Alee). Roostum Alee was thunder-struck at hearing all these stories and asked Raja Munsaram what they meant. Munsaram, a clever and open-minded man, assured Roostum Alee that it was impossible for him, whom he had raised from nothing, to be guilty of such treachery, and that it was merely the invention of enemies who were envious of Roostum Alee and also wished to injure him (Munsaram). To this Roostum Alee replied that if such was really the case, some steps must be taken to induce Sufdar Jung to return at once from Jaunpore to Fyzabad. Munsaram answered that any direct application to that effect would not do; but if Roostum would permit, he himself would proceed to the Nawab by making things smooth with the Nawab’s ministers and presenting gifts to remove his suspicions; but he added that he felt doubtful about Roostum’s feelings towards him while absent; that it was likely his enemies would take this chance of misrepresenting all his actions, and thus cause a coldness to arise between them in which case his efforts would be fruitless. Roostum Alee approved of Munsaram’s plan, and assuring him of the continuance of his friendship, sent him with costly presents to the Nawab. Rajah Munsaram, on his arrival at Jaunpore and obtaining an audience, laid these presents from Roostum Alee before the Nawab, and by his address and knowledge of affairs, completely cleared the mind of the Nawab from the doubts he had regarding Roostum Alee, and brought him to look again with favour upon the latter. During the discussions about these affairs, Munsaram had offered an increase of Four Lakhs of rupees in revenue, if the four Surkars were continued to Roostum Alee, when a letter came from Boorhanoolmoolk to Sufdar Jung go the effect that the Ghazipur province was to be given to Sheikh Abdoollah. Munsaram, on hearing of this project, without consulting Roostum Alee strongly objected and the argument between the Nawab's ministers and Munsaram waxed hot on the point, when suddenly Sheikh Abdoollah appeared on the scene and bid eight lakhs additional for the four Surkars. Munsaram's enemies about Roostum Alee represented to him that all these proceedings were merely dodges of Munsaram, and succeeded in causing Roostum Alee to suspect him. An angry correspondence then began. Roostum showed displeasure openly to Bulwant Singh who was at his court, and permitted the enemies of Munsaram to attend and take part in his councils. By their advice, he sent another envoy to the Nawab, who was directed to carry on the negotiation, without consulting Munsaram, through some of the Nawab’s ministers; and by no means to allow Munsaram to interfere. These things were soon known to Munsaram and grieved him greatly; he consulted those of his friends who were at Nawab’s court, and was advised by them that, since his principal had thrown him over, his best plan was to act for himself in the business to spend money, and court the favour of the Nawab. Accordingly, as he fully perceived that his power in the country, and influence with Roostum Alee would go with his loss of favour, and not liking to fall back into a position of inferiority, he made overtures to Nawab’s ministers and obtained their consent to getting the three Surkars by paying 13 Lakhs of rupees revenue...”

भावार्थ यह हैं कि ''1150 हिजरी अर्थात् 1732 ई. में बादशाह मुहम्मद शाह के बुलाने से नवाब सआदत खाँ अपने दामाद अब्दुल मंसूर खाँ (सफदरजंग) को अपना नायब बनाकर दिल्ली चला गया। यह मौका पा रुस्तम के शत्रु सफदरजंग के कानों में शिकायतें यह कहकर भरने लगे कि रुस्तम अली राज्य कार्य की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देता, विषयसक्ति में अपना सब समय बिताता, राज्य के नौकरों से शत्रुता रखता और मीरमुर्तजा के अधिकारों को दबा लेने के लिए सोचा करता हैं। इस प्रकार से उन्होंने सफदरजंग के दिल में रुस्तम अली की ओर से अविश्वास पैदा कर दिया। जब नवाब सफदरजंग (अब्दुल मंसूर खाँ) के पास ये शिकायतें पहुँचीं तो वह बहुत ही नारज हुआ और तुरन्त रुस्तम अली को दण्ड देने के लिए फैजाबाद से रवाना हुआ। जब वह जौनपुर पहुँच गया तो रुस्तम अली के खैरख्वाह ने, जो मनसाराम से सदा से विरोध रखता था, धीरे से यह उकसाया कि मनसाराम ही इस शत्रुता का कारण हैं। जो कि बाहर से वह मित्रता सूचित करता हैं, परन्तु हृदय में आपके सताने की युक्तियाँ सोचा करता हैं। यही, शख्स हैं जिसने सफदरजंग को आपके विरुद्ध उभाड़ा हैं। रुस्तम अली इन बातों को सुनकर भौंचक्का-सा रह गया और उसने मनसाराम से पूछा कि इन सब बातों का अर्थ क्या हैं? मनसाराम ने, जो कि चतुर और प्रतिभाशाली पुरुष था, रुस्तम अली को निश्चय करवाया कि मेरे लिए इन सब छल-कपटों का अपराधी होना असम्भव हैं, जिसे आपने एक तुच्छ दर्जे से ऊँचे पर चढ़ाया हैं। यह केवल शत्रुओं की मिथ्या कल्पना हैं, जो आपके द्वेषी हैं और मुझे भी सताना चाहते हैं। इस पर रुस्तम अली ने उत्तर दिया कि यदि सचमुच यह बात हैं तो सफदरजंग को जौनपुर से फैजाबाद तुरन्त लौट जाने को राजी करने के लिए कोई उपाय करना चाहिए। मनसाराम ने कहा कि इस विषय में सीधा यत्न कुछ काम न करेगा। लेकिन यदि आप आज्ञा दे तो मैं स्वयं नवाब के मन्त्रियों से मिलकर नवाब के पास जाऊँ और उसे नजर देकर उसके सन्देह दूर करूँ। लेकिन अपनी अनुपस्थिति में मुझे अपने साथ आपके बर्ताव का सन्देह हैं; क्योंकि यह हो सकता हैं कि ऐसे समय में मेरे शत्रु मेरे सब कामों को आपकी दृष्टि में उलटा जँचा दे और इस तरह से मेरे-आपके बीच मनोमालिन्य पैदा कर दे; जिस दशा में मेरा यत्न निष्फल हो जायेगा। रुस्तम अली ने मनसाराम के उपाय को पसन्द किया और अपनी मैत्री के स्थिर रखने का विश्वास दिलाकर बहुत सी बहुमूल्य भेंट के साथ मनसाराम को रवाना किया। मनसाराम ने जौनपुर पहुँच अवसर पाकर दरबार में इन सब भेंटों को नवाब के सामने रख दिया और अपनी बातचीत और व्यवहारकुशलता से नवाब के चित्ता को रुस्तम अली सम्बन्धी सब सन्देहों से बिलकुल रहित कर दिया और रुस्तम पर उसकी कृपादृष्टि उत्पन्न कर दी। जबकि इसी विषय के विवाद के समय मनसाराम ने कहा कि यदि चारों सरकारें रुस्तम अली के ही अधिकार में रहने दी जाये तो मैं चार लक्ष अधिक दूँगा, उसी समय एक पत्र बुरहानुल मुल्क (सआदत खाँ) के पास से सफदरजंग के नाम इस बात का आया कि सूबा गाजीपुर शेख अब्दुल्ला को दिया जायेगा। जब मनसाराम को यह मालूम हुआ तो रुस्तम अली से पूछे बिना ही इस बात को उसने बहुत ही रोका और मनसाराम तथा नवाब के मन्त्रियों के बीच इस विषय पर बहुत कड़ा वाद-विवाद हुआ। परन्तु उसी समय अकस्मात् शेख अब्दुल्ला पहुँच गया और उसने चारों सरकारों के लिए 8 लाख और देने को कहा। इसी समय मनसाराम के शत्रुओं ने रुस्तम से कहा कि ये सब कार्रवाइयाँ केवल मनसाराम के ही छल हैं और ऐसा कहकर रुस्तम अली का उसकी ओर से शक पैदा कर दिया। उस समय चिढ़-चिढ़ी की लिखा-पढ़ी होने लगी। रुस्तम ने बलवन्त सिंह के प्रति, जो उस समय दरबार में उपस्थित थे, अपनी अप्रसन्नता सूचित की और मनसाराम के शत्रुओं को दरबार में भाग लेने और उपस्थित होने की आज्ञा दे दी और उन लोगों की राय से दूसरा राजदूत नवाब के पास भेजा, जिसको समझा दिया कि बिना मनसाराम के पूछे ही नवाब के कुछ मन्त्रियों द्वारा बातचीत करे और किसी प्रकार से भी मनसाराम को दखल देने न दे। जब यह बात मनसाराम को मालूम हुई तो उसको बहुत ही दु:ख हुआ। उसने अपने मित्रों से जो कि नवाब के दरबार में थे, सलाह की। उन्होंने राय दी कि जबकि आपके मालिक ने आपको बेइज्जत या अलग कर दिया, तो आपके लिए सबसे अच्छी बात यह हैं कि अब अपने ही लिए इस विषय में यत्न करें, रुपये खचरें और नवाब को अपने पक्ष में लावें।...............

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