सोमवार, 25 जून 2012

क्या सचमुच ब्रह्मेश्वर सिंह दलितों के गुनाहगार थे?




रणवीर सेना के मुखिया ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ मुखिया जी की हत्या निश्चित तौर पर कानून की नजर में गुनाह है। फिर भी सवाल यह है कि सामाजिक तौर पर इसे जायज ठहराया जाए या नाजायज? उग्रवादियों के खून से होली खेलने वाले मुखिया की खूनी दास्तान इस सवाल को बल देती है।

दास्तान के पीछे की सच्चाई को जानने के बाद सवाल उठता है कि क्या सचमुच मुखिया ‘दलितों के गुनहगार’ थे? या फिर उग्रवाद के खिलाफ छिड़ी इस जंग को राजनीतिक ताकतों ने जातीय हिंसा का रूप दे दिया? क्या सचमुच मुखिया की हत्या से दलितों ने ‘राहत’ की सांस ली है? क्या सचमुच एक ऐसे शख्स की हत्या हुई है, जिसे समाज ने ‘समाज का दुश्मन’ माना है? या फिर हत्या पर महज सियासत हो रही है? कहा तो यह भी जा रहा है कि ‘खून का बदला खून’ से लेने का आह्वान करने वाले मुखिया जी सही थे। उन्होंने बंदूक के सहारे शांति कायम करने के लिए जिस प्रकार नरसंहारों का सहारा लिया, वह जायज था। ऐसे सवाल बिहार के सियासी गलियारों से लेकर आमलोगों की जुबान पर दौड़ रहे हैं।

खुले तौर पर कहा जाए, तो मुखिया के समर्थक उन्हें गरीबों और कमजोरों का मसीहा मानते थे। वहीं एक वर्ग ऐसा भी है, जो मुखिया को खून की नदियां बहाने वाला दुर्दांत अपराधी मानता रहा है। यानी, मुखिया को समाज का हर तबका अलग-अलग रूप में देखता और समझता है। ऐसे में मुखिया को मसीहा या फिर आतंक का पर्याय घोषित करने से पहले उनकी पूरी दास्तां को जानना बेहद जरूरी है।

मुखिया का जन्म भोजपुर जिले के सहार में खोपिरा गांव में हुआ था। गांव के स्कूल से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने आरा को अपना ठिकाना बनाया। मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद जैन कॉलेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने स्नातक में दाखिला लिया।

हालांकि, उनकी पढ़ाई पूरी नहीं हो सकी। इसकी वजह रही 1969 में हुई एक घटना में उनका नाम आना। यह घटना दो लोगों की हत्या से जुड़ी थी। हालांकि, बाद में कोर्ट ने मुखिया को इस मामले में निर्दोष करार दे दिया। इसी घटना ने मुखिया की जिंदगी को ‘डि-रेल’ कर दिया। इस बीच सामाजिक कार्यों से जुड़े होने और अपराध के खिलाफ आवाज बुलंद करने के कारण काफी कम उम्र में ही उनका नाम लोगों की जुबान पर आ गया था। यही वजह रही कि वर्ष 1972 में ही वे खोपिरा ग्राम पंचायत के मुखिया बन गए। उसके बाद उनकी जिंदगी सामाजिक कार्यों की ओर बढ़ती गई।

उसी समय भोजपुर में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत हुई थी। वंचित तबके के लोगों ने सामंतवाद के खिलाफ हिंसक रास्ता अख्तियार कर लिया था। इसके कारण मुखिया ने भी समांतर तरीके से अपने लोगों को एकजुट करना शुरू कर दिया और उसके साथ ही शुरू हो गया जातीय हिंसा का दौर। हिंसा की इस आग ने उस वक्त प्रचंड रूप धारण कर लिया, जब 1990 में बिहार की सत्ता में लालू यादव, यानी राजद की सरकार आई।

अपनी राजनीति चमकाने और ‘फूट डालो राज करो’ की नीति पर चलते हुए लालू ने खुले तौर पर ‘भूरा बाल साफ करो’ (भू-भूमिहार, रा-राजपूत, बा-ब्राह्मण, ल-लाला) का नारा दे दिया। इस नारे ने बिहार में जातीय हिंसा की एक नई दास्तान लिख दी। जातीय संघर्ष में पहले से तप रहे बिहार को लालू के एक बयान ने इस कदर उग्र कर दिया कि नरसंहारों का दौर थम नहीं रहा था।

सवर्णों के खिलाफ चल रहे आंदोलन में लालू का अप्रत्यक्ष सहयोग दलितों और पिछड़ों के लिए उस ताकत के तौर पर काम करने लगा, जिसका अंदाजा होने के बाद वे कुछ भी करने गुजरने के लिए आजाद हो गए। लालू को मसीहा के रूप में देख रहे दलितों और पिछड़ों ने आतंक की नई इबारत लिखनी शुरू कर दी।

इस दौरान 1993 और 1994 में मध्य बिहार, विशेषकर भोजपुर के कई इलाकों में दलितों और पिछड़ों का नरसंहार रौद्र रूप लेने लगा। रणवीर सेना के नाम से तैयार हुए उग्रवाद विरोधी सेना के 1995 से 2000 के बीच 28 नरसंहारों में ब्रह्मेश्वर मुखिया को आरोपी बनाया गया। इन नरसंहारों में कुल 282 लोगों की मौत हुई और सैकड़ों जिंदगी तबाह हो गई।

बहरहाल, मुखिया की जिंदगी से जुड़ी यह ‘तल्ख’ सच्चाई साफ बयां कर रही है कि राजनीतिक दलों ने अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए सियासी दांव-पेंच के सहारे जातीय संघर्षों की चिंगारी में आग लगाई। एक बार फिर मुखिया की हत्या के बाद सफेदपोश खुद की राजनीति को चमकाने की खातिर जातीय संघर्ष की आग को हवा देने की कोशिश में हैं। अब यह हम और आप तय करेंगे कि हमें जातीय संघर्ष की आग में कूद कर एक-दूसरे का खून बहाना है या फिर आम लोगों की खून से राजनीति की होली खेलने वालों को सबक सिखाना है।



रणवीर सेना के नरसंहारों पर एक नजर



29.04.1995 खोपिरा, भोजपुर 5

25.07.1995 सरथुआं, भोजपुर 6

05.08.1995 नूरपुर, भोजपुर 6

07.02.1996 चरपोखरी, भोजपुर 4

09.03.1996 सहार, भोजपुर 3

22.04.1996 नोनूर, सहार, भोजपुर 5

05.05.1996 नाड़ी, भोजपुर 3

19.05.1996 नाड़ी, भोजपुर 3

25.05.1996 मोरथ, भोजपुर 3

11.07.1996 बथानी टोला, भोजपुर 21

25.11.1996 पुरहरा, भोजपुर 4

12.12.1996 खनेट, भोजपुर 5

24.12.1996 एकवारी, भोजपुर 6

10.01.1997 बागर, तरारी, भोजपुर 3

31.01.1997 माछिल, जहानाबाद 4

26.03.1997 बिक्रम, पटना 10

28.03.1997 आकोपुर, जहानाबाद  3

10.04.1997 एकवारी, भोजपुर  9

11.05.1997 नगरी, भोजपुर 10

02.09.1997 खड़ासिन, भोजपुर 8

23.11.1997 कटेसर, जहानाबाद 6

31.12.1997 लक्ष्मणपुर बाथे,   जहानाबाद 59

25.07.1998 ऐयार, करपी, जहानाबाद 3

25.01.1999 शंकरबिगहा, जहानाबाद 23

10.02.1999 नरायणपुर, जहानाबाद 12

21.04.1999 सिमदानी, गया 3

28.03.2000 सोनबरसा, भोजपुर 3

16.06.2000 मियांपुर, औरंगाबाद 33

कुल मृतक  282

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