सोमवार, 25 जून 2012

प्रेम अपनी आंखों में सबका सपना / सुभाष राय


सबका सपना
तुम बताओगे प्रेम क्या है?
देह की मादक गहराई में उतर जाने
का पागल उन्माद या कुछ और
तप्त अधरों पर अधरों के ठहर जाने
के बाद की खोज है या कुछ और
मांसल शिखरों पर फिरती ऊंगलियों
से उठती चिनगारी भर या कुछ और
पल भर की मनमोहक झनझनाहट
का लिजलिजा स्खलन या कुछ और

तुम चुप क्यों हो, कुछ बताओ, बोलो
अगर प्रेम किया है कभी तो कैसा लगा
तुम प्रेम के बाद भी बचे रह गये या नहीं
प्रेम के बाद कोई और चाह बची या नहीं
एक बार पूरा पा लेने के बाद भी बार-बार
पाने की उत्कंठा तो शेष नहीं रही

अगर तुमने सचमुच प्रेम किया है
तो मैं जानता हूं तुम चुप रहोगे,
बोलोगे नहीं, बोल ही नहीं पाओगे
ना, तुम सुनोगे ही नहीं मेरा सवाल

प्रेम देह को मार देता है
आंखों का अनंत आकाश एक
दहकते फूल में बदल जाता है
पूरा आकाश ही खिल उठता है
पलकें गिरती नहीं, उठतीं नहीं
कानों में गूंजती है वीणा महामौन की
और कुछ भी सुनायी नहीं पड़ता
फिर कमल हो या गुलाब या गुलदाऊदी
न दिखते हैं, न महंकते हैं, न भाते हैं
गंध में बदल जाता है पूरा अस्तित्व

देह जीते हुए मर जाता है
तो प्रेम जन्म लेता है
जब किसी में उतर जाता है प्रेम
वह जीता ही नहीं अपने लिये
वह रहता ही नहीं अपने लिये

कभी ऐसा हुआ क्या तुम्हारे साथ
याद करो, पीछे मुड़कर देखो
कभी करुणा बही क्या आंखों से
कभी मन हुआ भूख से बिलबिलाते
बच्चे को गोंद में उठा लेने का
सबके दुख-दर्द में शरीक होने का
दूसरों के लिये जीवन लुटा देने का
नहीं हुआ तो सच मानो
तुमने प्रेम नहीं किया कभी
तुम प्रेम की परिभाषाएं चाहे
जितनी कर लो, जितनी अच्छी कर लो
पर प्रेम का अर्थ नहीं कर सकते

प्रेम खुद को मारकर सबमें जी उठना है
प्रेम अपनी आंखों में सबका सपना है

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