शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

कहाँ है आदमी / सुभाष राय


आदमी है कहाँ, किधर
कोई बताएगा मुझे
चुप क्यों हैं सब के सब
कोई बोलता क्यों नहीं

अपने बच्चों का ध्यान
तो जानवर भी रखते हैं
अगर तुमने भी इतना ही
सीखा अभी तक
तो तुम उनसे अलग कैसे

भैंसे बंधती है
जिसके खूँटे से
दूध देती हैं उसे
तुम भी अगर किसी के
खूँटे से बंध गए हो
क्योंकि वह तुम्हें
डाल देता है चारा
जो वह चबा नहीं पाता
और बदले में दूहता
रहता है तुम्हें
तो तुम पालतू से
ज़्यादा क्या समझते हो
अपने-आप को
कैसे मान लूँ कि तुम
अब कभी दहाड़ सकोगे
निर्भय वनराज की तरह


जिनकी मूँछे बड़ी हैं
जिनकी आवाज़ में
कुछ भी कर गुज़रने का
झूठा ही सही पर
सधा हुआ दर्प है
जो बड़ा से बड़ा अपराध
करके भी हथकड़ियों में
कभी नहीं बंधते
जिनके लिए थाने
घर की चौपाल की तरह हैं
जिन्हें अपनी कुर्सियाँ सौंप
देते हैं सरकारी अफ़सरान
डर से ही सही
जिनका प्रवचन
सभी लगाते हैं सर-माथे
जिनकी ग़ुलामी बजाती हैं
ग़ैरकानूनी बंदूकें

मैंने देखा है
बार-बार उनके दरबार में
दुम हिलाते हुए
पूँछ दबाकर करुणा की
भीख माँगते हुए
निहुरे, पाँवों में गिरे हुए
चारणों की जमात को
गिरवी रख चुके ख़ुद को
निजता से हीन, दीन
मिमियाते, घिघियाते
हुक्म बजाते

इन्हें आदमियों में आख़िर
क्यों गिना जाए
सिर्फ़ इसलिए कि ये
आदमी जैसे दिखते हैं
दो पाँवों पर चलते हैं
कभी-कभी मनुष्य की
आवाज़ निकाल लेते हैं

इन मरे हुओं के हुजूम में
मैं ढूँढ रहा हूं उन्हें
जिनमें आदमीयत बाकी है
कोई बताएगा इनमें
वो कहाँ है, जिसने
बचाया था मासूम लड़की को
ज़िस्मफ़रोशों के चंगुल से
वो कहाँ है जिसने
पड़ोसी के घर में घुसे
आतंकवादी को अपनी
भुजाओं में जकड़ लिया था
और उसकी बंदूक मरोड़ दी थी
और वो कहाँ है
जो अपाहिज हो गया
बलात्कारियों से जूझते हुए
जिसने गाँव की
इज़्ज़त से खेलने वाले
बदमाश को बाइज़्ज़त जमानत
मिलते ही कोर्ट के बाहर
ढेर कर दिया था

मुझे उन कायरों की
कोई दरकार नहीं है
जो सड़क पर लहूलुहान पड़े
बच्चे के पास से गुज़र जाते हैं
फिर भी आँखें पसीजतीं नहीं
मुझे उन हतवीर्यों से क्या लेना
जो चाकू हाथ में लहराते
मुट्ठी भर बदमाशों को
ट्रेन का पूरा डिब्बा लूटते देखते हैं
और इस झूठी आस में
कि शायद वे लुटने से बच जाएँ
अपनी बारी आने तक
जुबान और हाथ
दोनों बंद रखते हैं
मुझे उन बिके हुए लोगों
की भी ज़रूरत नहीं है
जो चोरों, बेइमानों का
रात-दिन गुणगान करते हैं
सिर्फ़फ इसलिए की उन्हें
सरकारी ठेके मिलते रहें
कमीशन बनता रहे

देखो, पड़ताल करो
कोई तो ज़िंदा बचा होगा
किसी की तो साँस
चल रही होगी
कोई तो अपने
लहूलुहान पाँवों पर
बार-बार खड़ा होने की
कोशिश कर रहा होगा
कोई तो अनजान डरे हुए
बच्चे को बाँहों के
घेरे में संभाले
जूझा होगा अपहर्ताओं से
ढंूढो शायद कोई
मंजुनाथ घायल पड़ा हो
कोई सत्येंद्र तुम्हारे आने के
इंतज़ार में हो

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