सोमवार, 13 सितंबर 2010

ताज रहा न राज

जातीय राजनीति के लिए बदनाम बिहार में इन दिनों एक तबका खुद को ठगा महसूस कर रहा है. लगभग साढ़े चार साल पहले जब नीतीश कुमार के सिर पर इस राज्य की जनता ने ताज रखा तो इस बिरादरी को लगा कि लालू-राबड़ी के शासन के खिला़फ रात-दिन हर मोर्चे पर संघर्ष का बिगुल फूंकने का इनाम मिलने का समय आ गया. यहां बात भूमिहार बिरादरी की हो रही है, जिसने हर क़दम पर जान की बाजी लगाकर नीतीश का साथ दिया. हालांकि शुरुआत में नीतीश ने भी दिल खोल कर इसका साथ दिया और इस बिरादरी के नेताओं एवं अफसरों को इतनी तवज्जो दी कि सत्ता के गलियारों में यह चर्चा आम हो गई कि ताज भले ही नीतीश के सिर पर है, लेकिन राज तो भूमिहार नेता एवं अफसर ही चला रहे हैं. इतना ही नहीं, बाद के दिनों में तो यह कहा जाने लगा कि ताज एवं राज दोनों ही भूमिहारों के हाथ में है. मगर, समय और राजनीतिक हालात ऐसे बदले कि आज यह कहने वालों की कमी नहीं कि भूमिहारों के पास अब न ताज रहा न राज.

एक समय था, जब नीतीश सरकार में भूमिहार बिरादरी का ही बोलबाला था. लोग यह कहने से नहीं चूकते थे कि ताज नीतीश के पास है, राज भूमिहार चला रहे हैं. लेकिन, समय का ऐसा चक्र चला कि इस जाति विशेष के नेता हाशिए पर आ गए. आखिर वजह क्या है?

बात उस व़क्त की है, जब नीतीश की सरकार नई थी. अचानक चर्चा में आई एक खबर ने नए राज में भूमिहार बिरादरी से आने वाले ललन सिंह की हैसियत का एहसास शासन एवं प्रशासन को करा दिया. प्रखंड विकास पदाधिकारियों के तबादले पर ललन सिंह ने उस समय के ग्रामीण विकास मंत्री बैधनाथ महतो को कड़ी फटकार लगाते हुए पूछा कि आपने बिना मेरी राय के तबादले की सूची को कैसे फाइनल कर दिया. महतो को सूची दिखाकर अधिसूचना जारी करने की हिदायत दी गई. यह बात सही थी या गलत, यह तो ललन सिंह या फिर बैधनाथ महतो ही बता सकते हैं, लेकिन चर्चा में आई इन बातों ने नई सरकार में ललन सिंह का ग्राफ काफी ऊपर कर दिया. समय के साथ ललन सिंह का रुतबा भी बढ़ता गया और शासन-प्रशासन में ललन सिंह के निर्देश को सरकारी आदेश के तौर पर देखा जाने लगा, लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी साथ-साथ चलती रही कि संघर्ष के दिनों में नीतीश के हमसफर रहे कई भूमिहार नेता इस दौरान एक-एक कर उपेक्षा का शिकार होते चले गए. नीतीश के हाथों उपेक्षित होने वाले नेताओं की फेहरिस्त काफी लंबी है.

 जहानाबाद के पूर्व सांसद डॉ. अरुण कुमार, पूर्व मंत्री कृष्णा शाही, पूर्व मंत्री श्याम सुंदर सिंह धीरज, पीरो विधायक सुनील पांडे, पूर्व सांसद सूरजभान सिंह, जहानाबाद के निलंबित सांसद डॉ. जगदीश शर्मा, बेगूसराय के पूर्व सांसद रामजीवन सिंह, नवादा सांसद भोला सिंह आदि.

 नीतीश कुमार ने 1994 में जब लालू से अलग होकर नई पार्टी बनाई तो भूमिहार समाज ने उन्हें हाथोंहाथ लिया. लालू राज में सर्वाधिक पीड़ित भूमिहार रहे और इस जाति ने इसलिए नीतीश को आगे बढ़ाया कि कुशासन से मुक्ति मिलेगी. इस सफर में कई भूमिहार नेताओं ने नीतीश के लिए इसलिए त्याग किया कि किसी भी प्रकार से लालू-राबड़ी के जंगलराज से मुक्ति मिले.

रामजीवन सिंह, अरुण कुमार एवं ललन सिंह जनता दल (जॉर्ज) और फिर समता पार्टी के संस्थापक सदस्य थे. तीनों ही नेता नीतीश कुमार के साथ लगे रहे. उत्तर बिहार में रामजीवन सिंह एवं तत्कालीन मध्य बिहार में अरुण कुमार की पकड़ थी और बिरादरी में उनकी अहमियत भी थी. पशुपालन घोटाले की परत दर परत खोलने से चर्चा में आए ललन सिंह भी सब कुछ भूल कर नीतीश को आगे बढ़ाने में लगे रहे. नीतीश के सत्ता संघर्ष के दौरान बाढ़ में पूर्व मंत्री कृष्णा शाही एवं श्याम सुंदर सिंह धीरज भी सहभागी बने. कृष्णा शाही मोकामा से दो बार विधायक रहीं और बेगूसराय से सांसद बनकर केंद्र में मंत्री भी रहीं. 1977 की जनता पार्टी लहर में कृष्णा शाही ही एकमात्र सांसद बनीं और शेष 53 सीटों पर कांग्रेस हार गई. लालू के खिला़फ मजबूत विकल्प के तौर पर उभर रहे नीतीश के साथ आईं कृष्णा शाही दो-ढाई वर्षों के अंदर ही वापस हो गईं.

 17 वर्षों तक युवा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे पूर्व मंत्री श्याम सुंदर धीरज भी लालू के खात्मे के लिए नीतीश को मजबूती प्रदान करने आए. नीतीश के साथ चिपक कर रहने वाले धीरज भी अधिक दिनों तक साथ नहीं रह सके. धीरज तो यहां तक कहते हैं कि राजनीतिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति रहने के बावजूद नीतीश कभी नेताओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं रखते थे. धीरज ने तब अपना रास्ता अलग कर लिया, जब टाल क्षेत्र के बाहुबली अनंत सिंह ने बाढ़ के सकसोहरा में नीतीश कुमार को चांदी के सिक्कों से तौला था.

सर्वाधिक कष्टकारी अरुण कुमार की अपमानजनक विदाई थी. 1990 से ही लालू के खिला़फ संघर्ष कर रहे पूर्व सांसद अरुण कुमार कहते हैं कि उनका संघर्ष उस वक्त से है, जब नीतीश लालू के चाणक्य थे. नीतीश को समर्थन दिए जाने के संबंध में अरुण कहते हैं कि सामूहिक प्रयास के तहत ही कुशासन का खात्मा संभव था और नीतीश की अच्छी छवि के कारण ही वह उनके साथ थे. अलगाव के बाबत अरुण कुमार का कहना है कि नीतीश कुमार जैसे अहंकारी व्यक्ति को झेलना किसी के वश की बात नहीं.

एक समय अरुण कुमार भूमिहार बहुल इलाक़ों में घूम-घूमकर नीतीश कुमार के लिए ज़मीन तैयार करते थे और यही नीतीश कुमार ने यह स्थिति पैदा कर दी कि अरुण न सिर्फ पार्टी छोड़कर गए, बल्कि वह नीतीश के नाम पर ही हाथ जोड़ लेते हैं. बेगूसराय के पूर्व सांसद रामजीवन सिंह की तो यह स्थिति बनी कि वह रोते हुए पार्टी छोड़ने पर मजबूर हुए. अनुशासन का डंडा चलाकर पार्टी के क्षत्रपों को काबू में रखने वाले नीतीश ने उनकी वरिष्ठता का भी ख्याल नहीं रखा था.

2000 में मोकामा से विधायक बने सूरज सिंह उर्फ सूरजभान सिंह ने निर्दलीय विधायकों को एकजुट करके मोर्चा बनाया और ताक़त लगाकर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने में मदद की. पीरो से तीन बार विधायक रहे सुनील पांडे ने भी शाहाबाद क्षेत्र में नीतीश को मजबूती दिलाने में हरसंभव भूमिका निभाई, लेकिन बाहुबली होने का भय दिखाकर दोनों को कमजोर किया गया.

इसी तरह विधायक मुन्ना शुक्ला भी हाशिए पर डाल दिए गए. नीतीश सरकार में परिवहन मंत्री अजीत कुमार बार-बार यह सवाल पूछते हैं कि कोई मुझे यह तो बताए कि मुझे किस अपराध की सजा मिली है. वीणा शाही भी जदयू में एक किनारे पर खड़ी दिखाई पड़ती हैं

. जहानाबाद के सांसद डॉ. जगदीश शर्मा ने नीतीश कुमार के एंटी परिवारवाद वैक्सीन को लेने से इंकार कर पत्नी शांति शर्मा को निर्दलीय घोसी के अखाड़े में उतारा तो जवाब में मतदान के दिन राज्य पुलिस की एसटीएफ को उतार दिया गया. जगदीश शर्मा के समर्थकों की चुन-चुन कर पिटाई की गई. शासन द्वारा हरसंभव उपाय अपनाए जाने के बावजूद जगदीश शर्मा की पत्नी जीत गईं. जगदीश शर्मा के साथ हुए सुलूक ने अरुण कुमार प्रकरण की याद दिला दी. अंतिम चोट ललन सिंह पर की गई. तमाम दूसरे कारणों के अलावा उपेंद्र कुशवाहा, श्याम रजक, संजय सिंह और निहोरा यादव जैसे नेताओं का पार्टी में आना ललन सिंह के लिए बर्दाश्त से बाहर की बात थी. बताया जाता है कि इसके अलावा अन्य कई राजनीतिक फैसलों में भी ललन सिंह को भरोसे में नहीं लिया गया.

इस वजह से दोनों दोस्तों के बीच दूरी इतनी बढ़ गई कि सीधी बातचीत का रास्ता भी बंद हो गया. पिछड़ा, अति पिछड़ा एवं महादलित वोटबैंक को मजबूत करने में लगे नीतीश कुमार और जदयू में आंतरिक लोकतंत्र एवं कार्यकर्ताओं के मान-सम्मान की लड़ाई छेड़ने वाले ललन सिंह के बीच सुलह कराने की शरद यादव की कोशिश भी बेकार गई तथा विजय कुमार चौधरी को जदयू का नया प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया. ललन सिंह फिलहाल बिना ताज और राज के जदयू में रहकर कार्यकर्ताओं के मान-सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं और नीतीश कुमार अपने नए राजनीतिक प्रयोग को सफल बनाने के लिए दिन-रात पसीना बहा रहे हैं.

ललन सिंह के समर्थकों का कहना है कि वह जल्दी किसी को छेड़ते नहीं और छेड़ते हैं तो छोड़ते भी नहीं. ललन सिंह के हर राजनीतिक क़दम पर उनके समर्थकों की नज़र है. देखना है कि वह अपने समर्थकों का भरोसा कहां तक बरक़रार रख पाते हैं

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