बुधवार, 18 अगस्त 2010

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार-2.


इसी के अनुसार जबकि मनसाराम ने भी खूब विचार किया कि मेरे ऊपर रुस्तम को नामिहरबानी के साथ उसके ऊपर मेरा प्रभाव और देश के ऊपर अधिकार भी जाता रहेगा और तुच्छ होकर रहना भी अच्छा नहीं हैं तो, उसने नवाब के मन्त्रियों से बातचीत की और 13 लाख रुपये मालगुजारी पर तीनों सरकारों को पाने की मंजूरी उसने कर ली।''
बस अब पाठक लोग ही निरंजन मुखोपाध्याय की दी हुई इस मामले की तारीख और इस मामले का मिलान कर ले। आपने यह भी भूमिका में ही लिख दिया हैं कि खैरुद्दीन ने चेतसिंह के परम विश्वासी बाबू औसान सिंह की जो शिकायत की हैं उसे छोड़कर और सब कुछ उनका लिखा ठीक हैं। परन्तु आगे चलकर आप ही लिखते हैं कि बनारस राज्य के असली अधिकारी मनिहार सिंह को छल-कपट से हराकर ही औसान सिंह ने चेतसिंह को राजा बनाया। दूसरी जगह और भी लिखते हैं कि वार्न हेस्टिंग्ज की तरफ 2 लाख रुपयों के लिए हुकुम आदि जारी करवाना बाबू औसान सिंह का ही छल तथा द्वेष था। क्योंकि उनकी गद्दी दिलवाकर उसके ऊपर वे अपना अधिकार आदि जमाने की इच्छा किये हुए थे। भला इसको निन्दा नहीं कहते हैं तो क्या कहते हैं? बलिहारी हैं ऐसे पूर्वापर विरुद्ध लेखक की बुद्धि की! आप लिखते हैं कि मनसाराम ने बलवन्त सिंह के साथ 1738 ई. में धूमधाम से राजा के ठाटबाट में काशी में प्रवेश किया। परन्तु उसी बलवन्तनामे के दसवें पृष्ठ में लिखा हैं कि “Rajah Munsaram arrived at Benares on the 21st day of the month Safar in the year 1151, Hijree, and at once entered upon the Government of his three provinces...” अर्थात् ''राजा मनसाराम 1151 हिजरी (सन् 1733 या 34) के सफर महीने की 21वीं तारीख को बनारस पहुँचे और उसी समय अपने तीनों सरकारों के राज्य पर अधिकार किया इत्यादि''। इसी से विचारा जा सकता हैं कि ऐसे लेखक महाराज द्विजराज श्री काशीराज, अथवा भूमिहार ब्राह्मण समाज मात्र के विषय में या दूसरों ही के विषय में जो कुछ लिख डालें उसी में आश्चर्य हैं। परन्तु उनकी बातें कहाँ तक सत्य हो सकती हैं, इनके कहने की अब आवश्यकता नहीं हैं। विशेष रीति से निरंजन मुखोपाध्याय के वाक्यों का विचार ग्रन्थ में ही चलकर करेंगे। आश्चर्य तो इस बात का हैं कि ऐसे आदमियों के वाक्यों को भी ऋष्यादि वाक्यों की तरह प्रामाणिक मान और हवाला देकर बाबू हरिश्चन्द्र-ऐसे लेखक भी अकाण्ड ताण्डव करने में न चूके। नहीं तो भला बताइये, 'मुद्राराक्षस' की टीका करने में भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति लिखकर राक्षसी मुद्रा दिखलाने की क्या आवश्यकता थी? यदि हँसुए के ब्याह में खुरपे की गीत ही गानी थी तो आपने अपने ही घर का विचार करके सन्तोष क्यों न कर लिया?
बाबू रामदीन सिंह तो उनके गहरे चेले ही थे, अत: उनसे भी 'बिहार दर्पण' में गुरुजी का अनुसरण किये बिना न रहा गया। क्या बिहार में आपका और गुरुजी का वंश नहीं हैं? यदि बड़े भारी योग्य हुए तो घर तथा गुरु घराने के ही इतिहास भवन में दीपक क्यों न जलाया? यदि हम भी 'शठे शाठयं कुर्यात्' के अनुसार ऐसा ही करने लग जाये तो जीवितों के कौन कहे मरे हुओं के भी कलेजे फट जाये, और हाहाकार मच जाये। परन्तु हमको इस व्यर्थ तथा निष्प्रयोजन झगड़े से मतलब ही क्या हैं? बहुत सी बेसिर-पैर की तथा द्वेषपूर्ण व्यर्थ बातों का लिखना एवं निष्प्रयोजन किसी का कलेजा दुखाना आप जैसे ही सत्पुरुषों को मुबारक हो। बस, यहाँ पर इतना ही। आप लोग घबड़ावें न। आप लोगों का विशेष विचार प्रकृत विषय को लेकर ग्रन्थ में ही किया जायेगा।
एक और महात्मा का नाम प्रसंगवश याद आ गया। अत: पाठकों को उनका भी कुछ परिचय करा देना उचित समझता हूँ। आपका शुभ नाम था पं. दुर्गादत्ता परमहंस। आप डुमराँव के निवासी थे और अपने विषय में बहुत डींगें हाँका करते थे, जैसा कि आपने अपने दिग्विजय में लिख-लिखा दिया हैं। आप अपनी दिग्विजयनाम्नी उस पुस्तिका में जगत्प्रसिद्ध धुरन्धार विद्वानों की भी अवहेलना करने में न चूके। आप लिखते हैं कि हमने श्रीयुत् गंगाधार शास्त्री, श्रीयुत् राजाराम शास्त्री तथा श्री बालशास्त्री प्रभृति गणनीय विद्वानों को परास्त किया। भला, इतने ही अल्पकाल की बात की ऐसी बनावट! आपने इसके गवाह न लिख दिये, जिससे सम्भवत: किसी को शंका होती तो मिट जाती। ऐसा करने में शायद आप समझते थे कि हाल की बात हैं। इसलिए ढँकी-ढँकाई बातों का भण्डाफोड़ हो जायेगा तो फिर चेलों में अप्रतिष्ठा हो जायेगी। यदि आप ऐसे अद्वितीय विद्वान् थे तो आपकी प्रसिद्धि ब्रह्माण्डान्तर तक होनी चाहिए थी; क्योंकि पं. बालशास्त्री आदि को ही समग्र भारत वर्ष जानता हैं और ठहरे आप उसके विजेता! परन्तु शोक हैं कि आपको तो दूसरे जिले के भी लोग प्राय: न जानते होंगे।
एक बात और भी आप लिखते हैं कि उनके ही समय में थोजेन्द्र नाम का राजा डुमराँव में था जो प्रति नूतन श्लोक के लिए एक लाख मुद्रा देता था इत्यादि। भला इस बात का कोई ठिकाना हैं? उस समय तथा पूर्व के बाद के डुमराँव-नरेशों को कौन नहीं जानता? आप समझते थे कि भारतवर्ष भोलाभाला ही हैं। हमारे बराबर भी किसी को सुबुद्धि नहीं हैं। सब लोग भोज के नाम पर ही भूल जायेगे। इसीलिए सरासर असत्य भाषण में जरा भी न हिचके। आपने अपनी परमहंसता खूब ही दिखलाई! अब, ऐसे महात्मा पुरुष जिस किसी के विषय में जो कुछ लिख देंगे उसमें कितना लेश सत्य का होगा इसे बुद्धिमान लोग स्वयं समझ लेंगे। आपकी विशेष लीला आगे आपके बनाये भानमती के पिटारे को ही खोल कर दिखलायेंगे।
यह तो हुई संस्कृत और हिन्दीदाँओं की विचित्र कथा। अब अंग्रेजीदाँओं का भी थोड़ा परिचय कर लीजिये। आजकल के लोग परछिद्रान्वेषण में बहुत तत्पर हो रहे हैं और 'अपना ढेंढ़र न देखकर दूसरे की फुल्ली निहारने' वाले किस्से को चरितार्थ करने में जरा भी संकोच नहीं करते। बस चटपट किसी अंग्रेज की बनाई किताब की दो-चार बातें किसी जाति के विषय को देखकर तदनुसार ही फोनोग्राम की तरह स्वर भरने लग जाते हैं। इतना भी नहीं विचारते कि मेरे विषय में उन्हीं अंग्रेजों ने लिखा हैं, उसे भी तो जरा देख लूँ। उन्हें इससे मतलब ही क्या हैं? दूसरे की झूठमूठ हँसी-ठट्ठा करके केवल अपने पवित्र चित्त को सन्तुष्ट करना हैं। उन्हें बकरे की जान की क्या पड़ी हैं? केवल अपनी लोलुप जिह्ना के स्वाद से ही प्रयोजन हैं। साथ ही, यह भी बात हैं कि यदि वे लोग अपनी जाति तथा दूसरे की दुर्दशा उन्हीं अंग्रेज लिख्खाड़ों द्वारा की गयी देख ले तो फिर उनकी आई-बाई हज्म हो जाये; और लिखने का रोजगार ही मारा जाये; जिससे दूसरों के सामने पूँछ हिलाकर चार पैसे कमा सकना भी असम्भव हो पड़े। क्योंकि दूसरे की निन्दा करने से ऐसी दशा में वे इसलिए डरेंगे कि इन्हीं ग्रन्थों को देखकर दूसरे भी धज्जियाँ उड़ाने लग जाये। अत: वे लोग कूपमण्डूक बनना ही अपने रोजगार कायम रखने के लिए पसन्द करते हैं। अथवा बहुतेरे जान बूझकर भी अपनी सज्जनता का परिचय इसलिए देते हैं कि कोई मेरे विरुद्ध लिखेगा ही क्यों कर? क्योंकि वे मद में फूले रहते हैं कि ये पुस्तकें देख ही कौन सकता हैं? और यदि कोई लिखेगा भी तो यह कहकर निकल जायेगे कि 'जूते तो उसने अवश्य मारे, परन्तु वे लाल थे'। परन्तु इसको बुद्धिमानी और भलेमानुसी नहीं कहते।
लेखक को चाहिए कि जो कुछ लिखे उसका पूर्वपर विचार ले। केवल अंग्रेज लेखकों की दो-चार बातों पर भूलकर किसी का दिल व्यर्थ ही दुखाना या उसकी हँसी-ठट्ठा करना अच्छा नहीं हैं। क्योंकि किसी देश की रस्म-रिवाज तथा जाति-पाँति के विषय में लिखने वाले अंग्रेजों का यह पूर्व से ही अटल सिद्धान्त रहता हैं कि जैसे हम लोगों में इसका विचार नहीं हैं वैसे भी भारतादि देशों में भी प्रथम नहीं था। बस, इसी सिद्धान्त की पुष्टि करने के लिए वे लोग दिलोजान से परिश्रम करते और छिद्रान्वेषण करते रहते हैं। अन्त में पुराणादि के दो-चार आख्यानों तथा आचार- व्यवहारों को पढ़, सुनकर सब जातियों के धोने में अग्रसर हो जाते हैं। उनको इस प्रकार सब जातियों को हल कर एक सिद्ध करने में जनसाधारण की कल्पित किंवदन्तियाँ बड़ी ही सहायक हुआ करती हैं। इसीलिए इस तरफ उनका ध्यान बहुत ही रहा करता हैं और प्राय: उनकी सभी पोथियों में इनकी भरमार पाई जाती हैं और इन्हीं तथा दो-चार वर्तमान आचारों के आधारों पर वे अपने मनोराज्य किया करते और तदनुगुण सिद्धान्तों को निकाला करते हैं। यदि आगे प्रसंग होगा तो हम उनकी इस किंवदन्ती आदि वाली शैली को स्पष्ट दिखलायेंगे। लेकिन इनके आधार उनके ऐसा करने में उनका अपराध ही क्या कहा जा सकता हैं? अपराध तो सरासर हम भारतीयों का हैं, जो एक-दूसरे के निपट द्रोही बने हुए हैं। जहाँ एक ही जाति में एक-दूसरे को नीच बनाने का रात-दिन यत्न हो रहा हैं और इसकी पूर्ति के लिए गढ़न्त पुस्तकें लिखी तथा नयी-नयी किंवदन्तियाँ गढ़ी जा रही हैं, वहाँ एक जाति दूसरे के साथ ऐसा न करे इसमें आश्चर्य ही क्या हैं? अन्त में फल इसका यह होता हैं कि जो दूसरे की निन्दा के लिए ऐसी कुछ कल्पना करता हैं वह भी उसकी निन्दा के लिए ऐसा ही किया करता हैं और ऐसा करने में बड़े-बड़े ग्रन्थ, पुराण तथा उपपुराणों के नाम से रच दिये जाते हैं। कहीं-कहीं प्राचीन ग्रन्थों में ही कुछ मिला दिया जाता हैं या बड़े-बड़े कल्पित इतिहास तथा उपन्यास तैयार कराकर उनमें ही कुछ-न-कुछ सटा दिया जाता हैं। जिसका प्रतिफलरूप महान् अनर्थ यह हो जाता हैं कि वे वैदेशिक लोग उन्हीं बातों तथा किंवदन्तियों को ले उड़ते और उसी आधार पर सभी जातियों को स्वाहा कर डालते हैं और उन्हीं की कल्पित बातों को लेकर आजकल हमारे नयी रोशनी वाले बहुत से अंग्रेजी तथा हिन्दी ग्रन्थों, समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के मनमाने लिख्खाड़ भी फैसला करने लग जाते हैं। धिक्कार हैं हम लोगों की आर्यता, भारतीयता और हिन्दूपन को! हम इस प्रकार दूसरे के पाँव चलने वाले हो गये कि अन्त में जाति-पाँति और धर्म के विषय में उन्हीं के ग्रन्थों का प्रमाण देते हुए लज्जा भी नहीं करते और न पूर्वापर विचार ही करते हैं।
वैदेशिक लोग यदि हमारे ही देश में जन्म बितावें तब भी हमारे आचारों तथा विचारों के पूरे-पूरे ज्ञाता नहीं हो सकते। फिर 2-3 या 10-20 वर्ष ही रहने वालों की बात ही क्या हैं! परन्तु हम लोग तो इतने बह गये कि इस विषय में भी उन्हीं का उच्छिष्ट स्वीकार करने लग गये हैं। हमारी बुद्धि इस प्रकार मारी गयी हैं कि हम अपने ही देश, जाति और कुल के मनुष्यों को नीच बनाने के लिए सहस्रों कुकल्पनाएँ तथा रचनाएँ करने में तनिक भी नहीं हिचकते; जिसका फल यह होता हैं कि हम भी उसी अन्धाकूप में बलात् ढकेले जाते हैं। क्या ब्राह्मणों में ही परस्पर एक-दूसरे को सवालक्खी बनाने वाले यह नहीं जानते कि वह भी हमारे विषय में ऐसी ही कुछ कल्पनाएँ करेगा? और जब साक्षात् या परम्परा या हमारे साथ उसका ब्याह सम्बन्ध या खान-पान हैं तो फिर हम क्या होंगे? परन्तु फिर भी द्वेष या पक्षपात ऐसी वस्तु हैं कि उनसे यह बात करवा ही डालती हैं। जिसका फल यह होता हैं कि उनको लाचार होकर वैदेशिकों की दुरुक्तियों तथा निन्दाओं का लक्ष्य बनना पड़ता हैं। ऐसी ही दशा अन्य जातियों के भी विषय में तथा परस्पर दो जातियों की भी जाननी चाहिए। हाँ, ब्राह्मणों में जरा इनकी विशेषता होते-होते पराकाष्ठा हो गयी हैं। क्योंकि उन्हें तो 'ब्राह्मणो ब्राह्मणं दृष्ट्वा श्वानवद् गुर्गुरायते' अक्षरश: सिद्ध करना हैं और अब विशेष योग्यता के रह जाने से, अविद्यान्धकार की बहुलता और व्यक्तिगत स्वार्थन्धाता के कारण एक-दूसरे की आँखें तेली के बैल की तरह बन्द करके ही अपना कार्य साधना चाहते हैं; छल-कपट तथा दम्भ से ही अपनी पूर्व प्रतिष्ठा रखने का अब यत्न किया जाता हैं।
बस, इन्हीं सब बातों को देखकर वैदेशिक लोग इन्हें किताबों में ज्यों की त्यों लिख पुरोहित दल को स्वार्थी कहकर उसकी मट्टी पलीद किया करते हैं। अंग्रेजों के ग्रन्थों में से दो-एक को छोड़कर सभी के देखने से यही सिद्ध होता हैं कि याचक ब्राह्मण (पुरोहित), भाट, नाई, बारी, भर और कुर्मियों आदि; राजपूत, जाट, कहार, भर, राजभर, अहीर, पासी और कुर्मियों एवं कायस्थ, भड़भूँजा कहारादि में कुछ भी भेद नहीं हैं। यही लोग क्रमश: याचक ब्राह्मण, राजपूत तथा कायस्थादि बन गये हैं। अत: इनको प्रमाण मानकर उसी आधार पर किसी की जाति का निर्णय करना सभी जातियों की संकरता का सूत्रापात करना हैं। अत: मेरी समझ में कम-से-कम जाति तथा धर्म के विषय में इनका नाम भी लेना उचित नहीं हैं। हाँ, ऐतिहासिक अंश में वे प्रमाण माने जा सकते हैं, जिसको उन्होंने पालि तथा ग्रीक आदि ग्रन्थों और प्राचीन शिलालेखों आदि के आधार पर लिखा हैं। परन्तु उस आधार पर जो सिद्धान्त (theory) वे निकालने लग जाते हैं उस अंश में वे माने नहीं जा सकते। अतएव मैं इस ग्रन्थ में केवल ऐतिहासिक अंश में ही जहाँ-तहाँ उनकी सम्मतियाँ प्रमाण रूप से उध्दृत करूँगा। हाँ, उनके जो कुतर्क और कुकल्पनाएँ कहीं-कहीं अयाचक ब्राह्मण समाज के विषय में आपातत: लक्षित हुई हैं, अथवा उन्हीं भित्तियों पर हमारे देशीय नवीन बाबुओं ने जो मानसिक प्रसाद खड़े किये हैं उनके ध्वंस करने के लिए 'मियाँजी की जूती और मियाँजी का सिर' इस न्यायनुसार उनका अवलम्बन कहीं-कहीं करूँगा, न कि स्वतन्त्र प्रमाण रूप से। अथवा दो-एक जगह 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय से ही उन महाशयों का नाम स्मरण करूँगा, क्योंकि आजकल के अर्ध्ददग्धा बाबू लोग उन्हीं के वाक्यों को इस विषय में भी ब्रह्मा, व्यास तथा वसिष्ठादि के वाक्यों से बढ़कर मानने वाले हैं और उन्हें उनके बिना सन्तोष नहीं होता उनके मनाने को दूसरा उपाय ही क्या हैं? और हमको तो मानना ठहरा सभी को।
यद्यपि ऐतिहासिक अंश में भी हम उन्हें न मानते, यदि हमारे घर में ही पूर्ण सामग्री उसकी भी होती। परन्तु हम लोगों ने तो पौराणिक काल के बाद से या तो इतिहासों का लिखना ही छोड़ दिया, या लिखा भी तो उसे भी उपन्यास, नाटक अथवा प्रहसन ही बनाने में दत्ताचित्त होकर सत्यांश को बिलकुल तिलांजलि ही दे दी, और राग-द्वेष में आकर जिसके विषय में जैसा मन में आया लिखकर बदला चुका लिया। इसलिए हार मानकर तत्त्वजिज्ञासुओं को आज तक के इतिहास को शृंखलाबद्ध करने के लिए पालि, ग्रीक तथा तन्मूलक वैदेशिक वाक्यों का अवलम्बन करना ही पड़ता हैं और ऐसा करने में कुछ हानि भी नहीं हैं। परन्तु धार्मिक तथा जातीय अंश में तो उनको मानने में विशेष कर या तो उच्चजातियों की दुर्दशा हैं, या जिनकी किसी प्रकार से प्रसिद्धि हैं और संसार में किसी-किसी अंश अथवा बहुत से अंशों में प्रतिष्ठित समझे जाते हैं उनकी। जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय या राजपूत, अग्रवाले, खत्री , कायस्थादि।
मैंने अंग्रेजी ग्रन्थों में लिखा हुआ प्रत्येक जाति का तत्त्व जानने के लिए जिन ग्रन्थों का प्राय: आद्योपान्त अवलोकन किया हैं उनके नाम ये हैं-
(1) टाड साहब का राजस्थान (Tod’s Rajasthan),
(2) डब्ल्यू. एच. ईलियट कृत भारतवर्ष का इतिहास (W.H.Elliot’s History of India),
(3) सन् 1865 से 1911 तक की भिन्न-भिन्न प्रान्तों तथा समस्त भारतवर्ष की मनुष्य-गणना का विवरण (Census report of India, from 1865 to 1911),
(4) नेविल का संयुक्त प्रान्त का गजेटियर (Nevill’s Gaetteer of N.W.P.)
(5) फिशर का संयुक्त प्रान्त का गजेटियर (Fisher’s Gazetteer of N.W.P.),
(6) शेरिंग का भारतीय जाति विवरण (Tribes and Castes of India by M.A. Sherring)
(7) रिजले का भारतीय मनुष्य (H.M. Risley’s People of India),
(8) डबोइस कृत भारतीय मनुष्य सम्बन्धी रस्म-रिवाज आदि का विवरण (Description of the Character, Manner and Customs of the People of India by J.A. Dubois),
(9) क्रुक का संयुक्त प्रान्तीय जाति विवरण (Crooke’s Tribes and Castes of N.W.P.), (
10) नेस्फील्ड का संयुक्त प्रान्तीय संक्षिप्त जाति विवरण (Brief views of the Castes System of N.W.P. and Oudh by J.C. Nesfield M.A.),
(11) डॉक्टर विल्सन कृत भारतीय जाति (Dr. Wilson’s Indian Caste),
(12) डॉ. ओल्डहम कृत गाजीपुर आदि का विवरण (Dr. Oldham’s Memoir of Ghazipur etc.), (13) ईलियट की सप्लीमेन्टल ग्लासरी (H.M. Eliot's Supplemental Glossary),
(14) बौद्धकालिक भारत (The Buddhist India by Rhys David),
(15) प्राचीन भारत, मेक्क्रिन्डिल कृत (Ancient India by J.W. Mc. Crindle),
(16) एलफिंस्टन कृत भारतीय इतिहास (History of India by Hon. Elphinston),
(17) बलवन्तनामा (Bulwant Namah Translated by Fredrick Curven),
(18) आईन-ए-अकबरी (Ain. i. Akbari Translated by Col. Jarrett),
(19) एशिया सम्बन्धी अन्वेषण (Asiatic Researches by Jonaathan Duncan etc.) इत्यादि।







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